इनर इंजीनियरिंग | Inner Engineering: A Yogi’s Guide to Joy By Sadhguru Book Summary in Hindi

इनर इंजीनियरिंग | Inner Engineering: A Yogi’s Guide to Joy By Sadhguru Book Summary in Hindi
Inner Engineering: A Yogi's Guide to Joy By Sadhguru Book Summary in Hindi
Inner Engineering: A Yogi’s Guide to Joy By Sadhguru Book Summary in Hindi
        💕Hello Friends,आपका स्वागत है learningforlife.cc में। दोस्तों  इस पोस्ट में Sadhguru की book इनर इंजीनियरिंग की summary दी जा रही। यह बहुत ही अच्छी book है जिसे सभी को पढ़ना चाहिए क्योकि जिस चीज की तलाश हम बहार कर रहे है वह हमारे अंदर ही है बस उस तक हमें पहुंचना है। इस book के माध्यम से सध्गुरु का उद्देश्य यह है कि आनंद आपका हमेशा का संगी-साथी बन जाए। इसे एक वास्तविकता बनाने के लिए यह book आपको कोई उपदेश नहीं, बल्कि एक विज्ञान भेंट करती है; कोई शिक्षा नहीं, बल्कि एक तकनीक भेंट करती है, कोई नियम नहीं, बल्कि एक मार्ग भेंट करती है। उस विज्ञान की खोज करने का, उस तकनीक के ऊपर काम करने का, उस रास्ते पर चलने का अब समय आ गया है।

दो अक्षरों का एक बदनाम शब्द

        एक दिन एक आदमी शंकरन पिल्लई की दवा की दुकान की तरफ़ जा रहा था कि उसे दुकान के बाहर लैंप पोस्ट से लिपटा एक आदमी नजर आया। उसे देखकर वह हैरान रह गया। जब वह दुकान के अंदर गया तो उसने शंकरन से पूछा, ‘वह आदमी कौन है? क्या हुआ है उसको?’
शंकरन पिल्लई ने तुरंत जवाब दिया, ‘अरे वह मेरा ही customer है।’
‘लेकिन उसको हुआ क्या है?
वह खांसी की कोई दवा माँग रहा था। मैंने दवा दे दी।’
आपने उसको क्या दवा दी?’
‘मैंने एक डिब्बा “जुलाब” (पेट साफ़ करने की दवा) दे दिया, और उसे
यहीं खा लेने के लिए कहा।
सिर्फ़ खांसी के लिए जुलाब! आपने उसे जुलाब क्यों दिया?’
‘अब जरा उसे देखो, वह खाँसने की हिम्मत भी नहीं कर सकता!’
        अपनी खुशहाली की तलाश करने वाले लोगों को भी आज दुनिया में इसी तरह का जुलाब पिलाया जा रहा है, जिसकी वजह से “गुरु” आज महज दो अक्षरों का एक शब्द बनकर रह गया है। दुर्भाग्य से, हम इस शब्द का सही अर्थ भूल गए हैं। “गुरु” शब्द का अर्थ है “अंधेरे को दूर करने वाला”। Normally लोग यह मानते है कि गुरु का काम ज्ञान व उपदेश देना या धर्म-परिवर्तन करना होता है। पर ऐसा नहीं है। गुरु का काम आपके लिए उन आयामों को उजागर करना है, जो अभी आपके अनुभव में नहीं हैं, जो आपकी ज्ञानेंद्रियों के बोध तथा आपके मनोवैज्ञानिक नाटक से परे होते हैं। मुख्य रूप से, गुरु इसलिए होता है ताकि वह आपके अस्तित्व की प्रकृति से आपका परिचय करा सके।

जब मैंने अपनी सुध-बुध खो दी

तब मैं एक इंसान था
मैं एक पहाड़ी पर चढ़ा
क्योकि मेरे पास गँवाने के लिए समय था
पर मैंने सब गँवा दिया
वो सब जो मैं और मेरा था
मैं और मेरा के जाने से
मेरा सारा संकल्प और कौशल जाता रहा
अब मैं हूँ, एक खाली घड़े समान
अधीन हूँ ईश्वरीय इच्छा
और अनंत कौशल के।

हर मुश्किल का हल आपके अंदर ही है।

        आपने अब तक अपनी जिंदगी में जो कुछ भी किया है, उन सबका बस एक ही मकसद रहा है। चाहे आपने करियर बनाना चाहा, कोई कारोबार शुरू किया, पैसे कमाए, या फिर परिवार का भरण-पोषण किया, यह सब आपने इसलिए किया क्योंकि आप बस एक साधारण-सी चीज़ चाहते थे – खुशी।
        लेकिन इस दौरान कहीं न कहीं आपका जीवन भी कठिन हो गया। अगर आप इस धरती पर किसी दूसरे जीव के रूप में पैदा हुए होते, तो सब-कुछ बहुत आसान हुआ होता। आपकी ज़रूरतें सिर्फ शारीरिक होतीं। जिस दिन पेट भर खाना मिल जाता, वह दिन शानदार हो जाता। अपने कुत्ते या बिल्ली पर ग़ौर कीजिए जैसे ही उनका पेट भर जाता है, वे शांत हो जाते हैं।
        आप एक सुपरमार्केट जा कर कुछ भी खरीद सकते या ऑनलाइन घर पर मगा सकते है। मानव-इतिहास में ऐसा इससे पहले कभी possible नहीं था। हम इस धरती पर रहने वाली अब तक की सबसे सुविधा प्राप्त पीढ़ी हैं। मगर दुःख की बात यह है कि हम निश्चित रूप से सबसे अधिक आनंदित, या सबसे ज़्यादा प्रेमपूर्ण, या सबसे ज़्यादा
शांतिपूर्ण पीढ़ी नहीं हैं। ऐसा क्यों है? हमने बाहर के वातावरण को व्यवस्थित करने की पूरी कोशिश की है। अगर हम इसे और ज़्यादा व्यवस्थित करते हैं, तो धरती ही नहीं बचेगी! फिर भी आज हम उतने खुश नहीं हैं, जितने हजार साल पहले हमारे पूर्वज थे।
        आपके और आपकी खुशहाली के बीच एक ही रुकावट है। वो यह कि आपने अपने विचारों व भावनाओं को भीतर से निर्देश लेने के बजाय, बाहर से निर्देश लेने दिया है। बाहर निकलने का तरीका बस अपनी दिशा में एक बहुत आसान-सा change करना है। आपको बस यह एहसास करने की जरूरत है कि आपके अनुभव का स्रोत और आधार दोनों ही आपके अंदर हैं। मानवीय अनुभव बाहरी स्थितियों से उकसाए या प्रेरित किए जा सकते हैं, लेकिन इसका स्त्रोत अंदर होता है। पीड़ा या सुख, क्लेश या आनंद, संताप या परमानंद, सब सिर्फ आपके अंदर घटित होते हैं। इंसान की नादानी यह है कि लोग हमेशा खुशी को बाहर से हासिल करने की कोशिश करते हैं। इस समय आप पोस्ट को पढ़ रहे है (video देख रहे )। आप इस पोस्ट (video) को कहाँ देख रहे हैं? क्या आपको लगता है कि इसकी छवि आपके बाहर है? फिर से सोचिए। आपको पता है कि छवि का निर्माण किस प्रकार होता है? दरअसल, रोशनी पोस्ट (video) पर गिरती है, फिर परावर्तित होकर आपकी आँखों की पुतली तक पहुँचती है और आपके रेटिना पर उल्टा प्रतिबिंब बनाती आप यह पूरी कहानी जानते हैं। तो, असल में आप पोस्ट (video) को अपने
ही अंदर देख रहे होते हैं। आप सारी दुनिया को कहाँ देखते हैं? अपने भीतर ही। आपके साथ कभी जो कुछ भी घटा, आपने उसे अपने अंदर ही किया है। उजाला और अँधेरा, पीड़ा और सुख, संताप और परमानंद, सब कुछ आपके अंदर ही हुआ है।
        एक बार की बात है, दक्षिण भारत में एक आदमी ईशा योग केंद्र ढूँढ़ते हुए आया। वह पास के गाँव में पहुँचा और वहाँ एक स्थानीय लड़के से पूछा, “ईशा योग केंद्र कितनी दूर है?’
लड़के ने अपना सिर खुजाते हुए कहा, ‘24,996 मील!
वह आदमी चौंक गया, ‘क्या? इतनी दूर?’
लड़के ने कहा, ‘हाँ, आप जिस तरफ़ जा रहे हैं, उधर से इतनी ही दूर है।
लेकिन अगर आप यहाँ से पलट जाते हैं, तो बस चार मील दूर है।
अगर आप बाहर की तरफ़ जाते हैं, तो यह एक अंतहीन यात्रा है। लेकिन अगर आप भीतर की तरफ़ मुड़ जाते हैं, तो सिर्फ एक पल की दूरी है। उस एक पल में सब-कुछ बदल जाता है। उस एक पल में आप खुशी के खोजी नहीं रह जाते, बल्कि आपका जीवन आपके आनंद की अभिव्यक्ति बन जाता है।

खुद बनाएँ अपना भाग्य

        एक बार सध्गुरु “धरती पर गरीबी कैसे दूर की जाए” विषय पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने गए। वहाँ पर ज़िम्मेदारी के पदों पर काम करने वाले और नोबल पुरस्कार पाने वाले कई हस्तियाँ भी थी।
सम्मेलन के दौरान एक participant ने कहा, ‘हम इन problems को सुलझाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? क्या यह सब ईश्वर की इच्छा नहीं है?’ सध्गुरु ने जवाब दिया ‘हाँ, अगर कोई और मर रहा है, कोई और भूखा है, तो यह ज़रूर ईश्वर की इच्छा ही होगी। लेकिन अगर आपका पेट खाली है, अगर आपका बच्चा भूख से मर रहा है, तो इससे जूझने के लिए आपके पास अपनी योजना होगी। होगी या नहीं?’ जब भी बात अपनी जिंदगी की आई, तब हमने फैसले अपने हाथों में ले लिए। लेकिन जहाँ दूसरे लोगों के दुर्भाग्य की बात आती है, तो हम उसे भाग्य कहकर अपना ज्ञान झाड़ने लगते हैं। बाकई यह कितना सुविधाजनक शब्द है। भाग्य हमारा एक प्रिय बहाना बन गया है, असफलता से निपटने का एक तरीका, और हर तरह की बुरी स्थितियों में खुद को समझाने का एक फरेब लेकिन भीतर की ओर
रुख करना अपने भाग्य का स्वामी बनने की दिशा में पहला कदम है।
        सौ साल पहले तक जिन विभिन्न प्रकार की बीमारियों को लोग “भगवान की मरज़ी” समझकर हाथ खड़े कर देते थे, वे आज हमारे काबू में हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि हमने कुछ खास स्थितियों पर नियंत्रण पा लिया है। मनुष्य होने का मतलब है कि आप जिन परिस्थितियों में जी रहे हैं, उन्हें जैसा चाहें ढाल सकते हैं। लेकिन आज दुनिया में ज़्यादातर लोग अपनी परिस्थितियों में ढल जाते हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए है, क्योंकि उनके सामने जो हालात आते हैं, वे उनकी प्रतिक्रिया में जीवन बिता देते हैं। अब एक लाजिमी सवाल उठता है, ‘मैं ऐसे हालात में क्यों हूँ? क्या यह मेरा भाग्य नहीं है? हम जिस चीज़ की ज़िम्मेदारी नहीं लेना चाहते, जिसका तार्किक रूप से मतलब नहीं निकाल सकते, उस पर “भाग्य” का ठप्पा लगा देते हैं। यह शब्द तसल्ली तो देता है, लेकिन हमें कमजोर बना देता है।
        आपका भाग्य अनजाने में आप खुद लिखते हैं। अगर आपको अपने भौतिक शरीर पर अधिकार हासिल है, तो आपका पंद्रह-बीस फ्रीसदी जीवन और भाग्य खुद आपके हाथों में होगा। अगर आपका अपने मन पर अधिकार है, तो आपके जीवन और भाग्य का पचास-साठ फ़ीसदी आपके हाथों में होगा। अगर अपनी जीवन-ऊर्जाओं पर आपका अधिकार है, तो आपका जीवन और भाग्य पूरी तरह आपके हाथों में होगा।
         एक दिन शंकरन पिल्लई अपने दोस्तों के साथ शराब पिने लगे और सोचा की एक पैक पीकर 8 बजे तक घर पहुंच जाउगा लेकिन एक के बाद एक पैक पिते गए और पता ही नहीं चला की कब 2 बज गए। जैसे ही शंकरन पिल्लई ने घडी देखी वह लड़खड़ाते हुए भगे , shortcut के चाकर में एक गुलाब के garden से निकले और वहा गिर गये  जिससे उसके चेहरे पर खरोंचे आ गई। लेकिन वह जैसे तैसे उठे और घर पहुंच कर अपने चेहरे की मलम पट्टी करने के लिए bathroom में गये और फिर चारपाई पे जा कर सो गये। सुबह उनकी बीबी ने बाल्टी भर के पानी उनके ऊपर डाला और कहा, ‘अरे बेवकूफ़! तुम फिर से पीने लगे?’
‘नहीं प्रिये, मैने तुमसे छह महीने पहले वादा किया था। तब से एक बूंद तक नहीं छुई है।’
उसने उन्हें कमीज से पकड़ा, घसीटते हुए बाथरूम में ले गई, और सामने शीशा दिखाया। सारी बैंड-एड शीशे पर चिपकी हुई थी!
        जब आप पीड़ा, क्लेश या गुस्से में होते हैं, तो वह समय अपने भीतर झाँकने का होता है, न कि अपने आसपास देखने का। खुशहाली पाने के लिए जिसको ठीक करने की ज़रूरत है, वह सिर्फ आप हैं। आप यह भूल जाते हैं कि जब आप बीमार होते हैं, तब आपको ही दवाइयों की ज़रूरत होती है। जब आप भूखे होते हैं, तो आपको ही भोजन की ज़रूरत होती है। तो यह सिर्फ आप ही हैं जिसे ठीक करने की ज़ररत है, लेकिन इस साधारण-सी बात को समझने में लोग कई जीवन लगा देते हैं!
        इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप कौन हैं; आपकी जिंदगी तब तक सही नहीं हो सकती, जब तक कि आप सही काम नहीं करेंगे। हो सकता है। कि आप खुद को अच्छा इंसान मानते हों, लेकिन अगर आप अपने बगीचे में पानी नहीं देते, तो फूल कैसे आएँगे? अगर आप नतीजे चाहते हैं, तो आपको सही काम करने होंगे।

न कोई सीमा, न कोई बोझ

कौन है ज़िम्मेदार?
        यह एक बड़ा सवाल है। आप अभी जैसे हैं, उसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? आपके जींस? आपके पिता? आपकी माता? आपकी पत्नी? आपके पति? आपके शिक्षक? आपका बॉँस? आपकी सास? ईश्वर? सरकार? या ये सभी? हर जगह यही स्थिति है। किसी से पूछिए, ‘आप ऐसी स्थिति में क्यों हैं?’ तुरंत जवाब मिलता है, ‘आपको पता है, जब मैं बच्चा था, मेरे माता-पिता… ‘ जवाब में थोड़े-बहुत फेर-बदल के साथ वही पुरानी कहानी होती है।
        आइए, पहले हम यह समझते हैं कि “उत्तरदायित्व” या “ज़िम्मेदारी” शब्द से हमारा क्या मतलब है। English में इसे “रिस्पॉन्सबिलिटी” कहते हैं। रिस्पॉन्सबिलिटी यानी कि रिस्पान्ड करने की एबिलिटी। हिंदी में कहेंगे उत्तर देने की क्षमता।
        ज़िम्मेदारी का मतलब बस आपकी रिस्पॉन्ड करने की क्षमता से है। अगर आप तय करते हैं कि “मैं ज़िम्मेदार हूँ”, तो आपके पास रिस्पॉन्ड करने की काबिलियत होगी। और अगर आप तय कर लेते हैं कि “मैं ज़िम्मेदार नहीं हूँ”, तो आपमें रिस्पॉन्ड करने की काबिलियत नहीं होगी। यह इतनी ही सीधी बात है। इसके लिए आपको बस इतना एहसास करना है कि आप जो कुछ हैं और जो नहीं हैं, जो कुछ आपके साथ हो सकता है और जो नहीं हो सकता, उसके लिए ज़िम्मेदार आप ही हैं।
        इंसान हमेशा शिकायते करता रहता हैं और रोना रोता रहता है कि उनके साथ बुरा हुआ ,जीवन में भयानक चीजों के बारे में बताते है।हो सकता है कि सब सच हो। अगर आपके साथ बहुत बुरी चीज़ें हुई हैं, तो आपकी समझदारी बढ़नी चाहिए। लेकिन और अधिक समझदार होने के बजाय ज़्यादातर लोग आहत हो जाते हैं। अगर आप यह स्वीकार कर लें कि ‘मैं अभी जैसा हूँ, उसके लिए मैं खुद ज़िम्मेदार हूँ, तो भयानक से भयानक चीज़ें भी आपके जीवन को समृद्ध बना सकती हैं। बड़ी से बड़ी विपत्ति को भी आप अपने विकास का जरिया बना सकते हैं। आप अभी जैसे हैं, अगर उसकी सौ फ़ीसदी ज़िम्मेदारी स्वीकार करते हैं, तो बेहतर कल आपके लिए एक संभावना हो सकती है। लेकिन अगर आप वर्तमान की ज़िम्मेदारी नहीं लेते – और अपनी परिस्थिति के लिए अपने माता-पिता, दोस्त, पति, प्रेमिका, सहकर्मियों को दोषी मानते हैं- तो आप अपना भविष्य उसके आने से पहले ही गॅँवा चुके होते हैं।
        एक बार जब आप इस आसान-सी बात के प्रति जागरूक हो जाते हैं कि – मेरी रिस्पॉन्ड करने की क्षमता असीमित है – तो अचानक जीवन आपके भीतर खुद को बिलकुल अलग तरह से पुनर्गठित कर लेता है। आप अपने भीतर अधिक से अधिक आज़ादी महसूस करने लगते हैं। जीवन अब अपनी खोज की शानदार और आनंददायक यात्रा बन जाता है।

॥साधना॥

        आप जो पढ़ रहे हैं, उस पर यूँ ही विश्वास मत कर लीजिए। कोई चीज़ सच है या झूठ, इसका पता लगाने का एक ही तरीका है – उसे प्रयोग में लाना। योग का मार्ग प्रयोग करने का मार्ग है।इसे शुरू करने का व्यावहारिक तरीका यहाँ दिया जा रहा है।
 
        जब आप अगली बार भोजन करें, तो पहले पंद्रह मिनट आप किसी से बात मत कीजिए। जो भोजन आप खा रहे हैं, जिस हवा में आप सॉस ले रहे हैं, जिस पानी को आप पी रहे हैं, बस उनके प्रति सक्रिय सचेतन रूप से रिस्पॉन्ड करने के भाव में रहिए। जैसा कि मैंने पहले भी कहा, आपका पूरा शरीर वैसे भी रिस्पॉन्ड कर रहा है। आप बस इसके प्रति जागरूक हो जाइए। यह सेब, यह गाजर, यह रोटी का टुकड़ा – इन्हें हलके में मत लीजिए। अगर आप दो दिन तक कुछ नहीं खाते, तो आप ईश्वर के बारे में नहीं सोचेंगे। आप सिर्फ भोजन के बारे में सोचेंगे। यह भोजन ही है, जो आपको पोषण दे रहा है और अभी आपके जीवन को बना रहा है। आपके शरीर का सार-त्त्व यही है। तो भोजन को पूरी तरह, पूरे ध्यान से जवाब दीजिए। यह फल, यह अंडा, यह रोटी, यह सब्जी – ये सब अपने-आप में जीवन का एक हिस्सा हैं, लेकिन वे आपका हिस्सा बन जाने को तैयार हैं। क्या आप किसी दूसरे के लिए ऐसा करने के लिए तैयार होंगे? आप अपनी पहचान गँवाने और दूसरे में समाकर एक हो जाने को तैयार नहीं हैं। यहाँ तक कि आप किसी दूसरे को अपनी छोटी उँगली तक समर्पित करने को तैयार नहीं हैं। आम तौर पर जब आपको कोई ज़रूरत होती है, तो आप पल भर के लिए बस थोड़ा-सा समर्पण करते हैं। आपके प्रेम-संबंध बड़े सुनियोजित समर्पण का नतीजा हैं। लेकिन भोजन, जो खुद में एक जीवन है, आपका हिस्सा बनने के लिए खुद को पूरी तरह से बलिदान कर देता है। बाद में, इस वाक्य को जोर से बोले बिना ही इस सरल विचार को पूरे दिन अपने मन में चलाते रहें – ‘मेरी ज़िम्मेदारी असीमित है। अगर मैं इच्छुक हूँ, तो मैं हर चीज़ के लिए रिस्पॉन्ड कर सकता हूँ।’ इस बात के प्रति नींद आ जाने तक जागरूक रहें और ऑँख खुलने पर पहली बात यही याद करें।

“..और अब योग”

        आधुनिक विज्ञान हमें बताता है कि पूरा अस्तित्व बस एक ऊर्जा है, जो खुद को अलग-अलग तरीकों से और अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त कर रहा है। इसका मतलब है कि वही ऊर्ज्जा यहाँ एक चट्टान की तरह रखी हो
सकती है और वहाँ मिट्टी की तरह पड़ी हो सकती है। वह एक पेड़ की तरह खड़ी हो सकती है, एक कुत्ते की तरह दौड़ सकती है – या आपकी तरह यहाँ पोस्ट पढ़ती हो सकती है। तो, वास्तव में आप ऊर्जा का एक अंश हैं,
जो ब्रह्मांड की विशाल ऊर्जा-प्रणाली का हिस्सा है। यह ब्रह्मांड बस एक विशाल रचना है। आपका जीवन इससे स्वतंत्र नहीं है। इस दुनिया के बिना आपका अस्तित्व नहीं हो सकता, क्योंकि आप दोनों के बीच हर पल बहुत
गहरा लेन-देन जारी रहता है।
        योग शरीर, मन और ऊर्जा के स्तरों पर खुशहाली सुनिश्चित करने से भी ज्यादा गहरे स्तर पर काम करता है। योग का शाब्दिक अर्थ है, मेल। जब आप योग में होते हैं, तो इसका मतलब है कि आपके अनुभव में सब- कुछ एक हो गया है।
        योग-विज्ञान हमें बताता है कि हम असल में पाँच “परतों” या “तहों” या सीधे कहें तो “शरीरों” से बने हैं। यह हमें वास्तविकता के स्थूल से सूक्ष्मतम स्तरों तक ले जाता है। क्या इस पर विश्वास करना ज़रूरी है? नहीं। लेकिन
यह अपनी खोज शुरू करने के लिए एक उपयोगी जगह है। हालाँकि,आपका काम करने का बुनियादी क्षेत्र केवल वही वास्तविकताएँ हैं, जिनके बारे में आप जागरूक हैं।
        पहली परत, जिसकी ओर योग-विज्ञान हमारा ध्यान खींचता है, वह है। अन्नमयकोश। यह भौतिक या स्थूल शरीर है, जिसे अन्न-शरीर कह सकते हैं। अभी आप जिसे “शरीर” कहते हैं, वह बस भोजन का जमा किया हुआ एक ढेर है। आपने सालों से भोजन से जो पोषण प्राप्त किया है, यह उसी का नतीजा है। इसी कारण उसका यह नाम पड़ा है।
        दुसरी परत मनोमयकोश या मानसिक का्या की है। दिमाग में जो-कुछ होता है, वह शरीर में होने वाली चीज़ों
पर असर डालता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जिसे आप “दिमाग” कहते हैं, वह केवल मस्तिष्क नहीं है। दिमाग इंसानी शरीर के किसी एक हिस्से में स्थित नहीं है। इसके बजाय, हर कोशिका की अपनी बुद्धिमत्ता होती है। तो
एक पूरा मानसिक शरीर होता है, मन की एक पूरी संरचना होती है। मानसिक काया में जो-कुछ होता है, वह भौतिक काया में भी होता है। और जो भौतिक काया में होता है, वह मानसिक काया में भी होता है। मन
के स्तर पर होने वाले उतार-चढ़ाव रासायनिक प्रतिक्रिया पैदा करते हैं, और हर रासायनिक प्रतिक्रिया मन के स्तर पर उतार-चढ़ाव पैदा करती है। भौतिक काया और मानसिक काया आपके हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर की तरह हैं। हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर तब तक कुछ नहीं कर सकते, जब तक कि आप उसमें सही किस्म की ऊर्जा प्रवाहित नहीं करते।
        तीसरी परत है प्राणमयकोश, यानी ऊर्जा-शरीर। अगर आप अपने ऊर्जा- शरीर को सही संतुलन में रखते हैं, तो आपके भौतिक शरीर और मानसिक शरीर में कोई बीमारी नहीं होगी। आज इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण हैं। कि आनुवंशिक स्मृति (Genetic memory) का इंसान पर असर अपरिवर्तनीय नहीं है। डीएनए के बुनियादी पहलुओं के अलावा, हर चीज़ को बदला जा सकता है, यहाँ तक कि रोगों के प्रति संवेदनशीलता की आनुवंशिक प्रवृत्ति को भी।
अभ्यास किसी खास बीमारी को ठीक करने के लिए नहीं हैं, इनका लक्ष्य बस ऊर्जा-शरीर में एक खास तालमेल और जीवंतता लाना है।
        चौथी परत है, जिसे विज्ञानमयकोश या आकाशीय शरीर कहते हैं। ज्ञान का मतलब है, “जानकारी”। विशेष ज्ञान का मतलब है। “असाधारण जानकारी” – जो इंद्रियों की अनुभूति से परे हो। यह एक परिवर्तनशील अवस्था है। यह न तो भौतिक है और न ही अभौतिक। यह दोनों के बीच की कड़ी की तरह है। यह आपके अनुभव के मौजूदा स्तर में नहीं है, क्योंकि आपका अनुभव पाँच इंद्रियों तक सीमित है, जो अभौतिक को महसूस नहीं कर सकतीं। जो लोग लगभग-मृत्यु के अनुभव बताते हैं, वे संयोग से इस अवस्था में पहुँच गए होते हैं। ऐसा अनुभव तब होता है, जब किसी कारण से व्यक्ति के भौतिक, मानसिक और ऊर्जा शरीर कमजोर हो जाते हैं। अगर आप इस आयाम तक सचेतन पहुँच बनाना सीख लेते हैं, तो ब्रह्मांडीय घटना को जानने की आपकी क्षमता में ज़बरदस्त वृद्धि हो जाएगी।
        पाँचवीं परत है – आनंदमयकोश, जो पूरी तरह से अभौतिक है। इसका जीवन के भौतिक दायरों से कोई लेना-देना नहीं है। एक ऐसा आयाम जो भौतिक से परे हो, उसका न तो वर्णन किया जा सकता है और न ही उसे define किया जा सकता है जब हम भौतिक से परे इस आयाम के संपर्क में होते हैं, तब हम आनंदमय हो जाते हैं।
        अगर आपका भौतिक, मानसिक और ऊर्जा-शरीर पूरी तरह से संतुलन में है, तो आप आनंद-काया तक पहुँच सकते हैं। लेकिन जैसा कि हमने पहले कहा है, आपका काम सिर्फ पहले तीन शरीरों के साथ होता है। इसलिए खुशहाली का अनुभव करने के लिए बस शरीर, मन और ऊर्जा के इन तीन आयामों पर एक खास महारत हासिल करने की ज़रूरत है। दुनिया में सफल होना इन आयामों का लाभ उठाने की आपकी क्षमता पर निर्भर करता है। आपको अपने इच्छित कार्य और अपने जीवन की परिस्थितियों के मुताबिक इन आयामों का इस्तेमाल करना होगा। लेकिन योग इन तीनों आयामों को तालमेल में लाने का विज्ञान भी है, ताकि आप इस जीवन के साथ ही आनंदमय मेल की चरम अवस्था में पहुँच जाएँ।

शरीर

एक आला मशीन

        उसका शरीर ही वह उपहार है, जिसका एहसास उसे सबसे पहले होता है। यह सबसे आला मशीन भी है। इस धरती की सभी मशीनें इसी मशीन से निकली हैं। भौतिक शरीर का निर्माण इस तरह किया गया है कि यह आपकी बिना अधिक भागीदारी के भी काम करता रहता है। आपको हृदय को धड़काना नहीं पड़ता, liver की सारी जटिल रासायनिक क्रियाएँ चलानी नहीं पड़तीं, साँस लेने की कोशिश भी नहीं करनी पड़ती। आपके भौतिक जीवन को कायम रखने के लिए जो-कुछ आवश्यक है, वह सब अपने आप होता रहता है।
        आपके अंदर दो मौलिक शक्तियाँ हैं। अधिकतर लोग उन्हें परस्पर विरोधी मानते हैं। उनमें से एक आत्मरक्षा की भावना है। यह आपको अपने चारों ओर एक सुरक्षा-दीवार बनाने के लिए विवश करती है, जबकि दूसरी शक्ति आपको लगातार विस्तार करने, सीमाओं से परे जाने के लिए प्रेरित करती है। चूँकि आपकी आत्मरक्षा की प्रवृत्ति आपको बताती रहती है, ‘जब तक आप दीवार खड़ी नहीं करते, आप सुरक्षित नहीं हैं,’ इसलिए अनजाने में आप उन्हें बनाते जाते हैं। बाद में आप उनसे संघर्ष करते हैं। यह एक अंतहीन चक्र है। परंतु सृष्टि आपके लिए इससे भी परे के द्वार खोलने को इच्छुक है। आप सृष्टि की अनिच्छा के साथ संघर्ष नहीं कर रहे, आप उन प्रतिरोध की दीवारों से संघर्ष कर रहे हैं, जो आपने अपने चारों ओर बना रखी हैं।
        यही कारण है कि यौगिक प्रणाली ईश्वर की बात नहीं करती। यह आत्मा या स्वर्ग के बारे में बात नहीं करती। ऐसी बातें निश्चित ही लोगों में मतिभ्रम पैदा करती हैं। योग केवल उन सरुकावटों की बात करता है, जो आपने स्थापित कर रखी हैं, क्योंकि इसी प्रतिरोध पर ध्यान देने की ज़रूरत है। आपका ध्यान आकर्षित करने की सृष्टिकत्ता की कोई इच्छा नहीं है। जो बेड़ियाँ आपको बाँधती हैं, जो दीवार आपको रोकती है – वे सौ फ़ीसदी आपकी बनाई हुई होती हैं। और यही चीजें हैं, जिन्हें आपको खोलने और गिराने की ज़रूरत है। आपको अस्तित्व के साथ कुछ नहीं करना। आपको केवल खुद के द्वारा रचे गए अस्तित्व के साथ काम करना है।

॥साधना॥

        आपने अपने बारे में इस बात पर ग़ौर किया होगा : जब आप प्रसन्न रहते हैं, तब आपकी विस्तार की इच्छा होती है। आप जब डरे होते हैं, तो सिमट जाना चाहते हैं। इसे आज़माकर देखिए । किसी पौधे या पेड़ के सामने कुछ मिनट के लिए बैठ जाइए। स्वयं को याद दिलाइए कि पौधा जो साँस छोड़ रहा है, उसे आप अपने अंदर ले रहे हैं और आप जो साँस बाहर छोड़ रहे हैं, उसे पौधा अपने अंदर ले रहा है। भले ही यह चीज़ अभी तक आपके अनुभव में न हो, फिर भी उस पौधे के साथ एक मनोवैज्ञानिक संबंध स्थापित कीजिए। इसे दिन में पाँच बार दोहराइए। कुछ दिनों बाद आप अपने आसपास की हर चीज़ से अलग तरह से जुड़ने लगेंगे।

जीवन-बोध : इंद्रियों से परे जीवन को जानना

        मनुष्य का शरीर दुनिया को कैसे जान पाता है? उसके लिए जानने का स्रोत क्या है? इसका उत्तर स्पष्ट है : अपनी पाँच इंद्रियों से। आप दुनिया या खुद के बारे में जो भी जानते हैं, वह जानकारी आपने केवल पाँच इंद्रियों से इकट्ठी की है – देखकर, सुनकर, सूँघकर, चखकर और छूकर। यदि ये पाँचों इंद्रियाँ सो जाएँ, तो आप न तो दुनिया को जान पाएँगे और न ही स्वयं को। हर रात को जब आप सोते हैं, अचानक आपके आसपास के लोग गायब हो जाते हैं, दुनिया गायब हो जाती है, यहाँ तक कि आप भी गायब हो जाते हैं। आप अब भी जीवित होते हैं, आपके आस-पास हर कोई जीवित होता है, पर आपके अनुभव में हर चीज़ छूमंतर हो जाती है, क्योंकि ये पाँच इंद्रियाँ बंद हो जाने की अवस्था में चली जाती हैं। इंद्रियाँ सीमित हैं। वे केवल उस चीज़ का बोध कर सकती हैं, जो भौतिक है। यदि आपकी समझ पाँच इंद्रियों तक सीमित है, तो स्वाभाविक रूप से आपके जीवन का दायरा भौतिक तक ही सीमित रहेगा। साथ ही, इंद्रियों को किसी भी चीज़ का बोध किसी दूसरी चीज़ की तुलना में ही होता है।

॥साधना॥

        सोने से तुरंत पहले, आप हर उस चीज़ पर ध्यान देना शुरू करें, जिसे आप अपना मानते हैं : अपने विचार, अपनी भावनाएँ, अपने बाल, अपने कपड़े, अपना मेकअप। इस बात को जान लीजिए कि आप इनमें से कुछ भी नहीं हैं। “आप” क्या हैं या “सत्य” क्या है, उसके बारे में किसी तरह के नतीजे पर पहुँचने की ज़रूरत नहीं है। सत्य निष्कर्ष नहीं है। यदि आप गलत निष्कर्षों को दूर रखते हैं, तो सत्य का उदय होगा। यह आपके रात्रि के अनुभव जैसा है : सूरज कहीं चला नहीं गया है; बात बस इतनी है कि धरती दूसरी तरफ़ देखने लगी है। आप अपने बारे में सोचते, पढ़ते और बातें करते हैं, क्योंकि आप दूसरी तरफ़ देखने में बहुत व्यस्त हैं! आपने इस बात को जानने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है कि वास्तव में आप कौन हैं। ऐसे में निष्कर्ष की नहीं, अपितु भीतर मुड़कर देखने की ज़रूरत है। यदि आप इस जागरूकता के साथ नींद में प्रवेश कर पाते हैं, तो यह महत्त्वपूर्ण होगा। चूँकि नींद में कोई बाहरी व्यवधान नहीं होता, अतः यह एक शक्तिशाली के रूप में विकसित होगा। समय के साथ आप सभी प्रकार के संचयों से परे एक नये आयाम में प्रवेश करेंगे।

जीवन को सुनना

        आप अपनी समझ के अनुसार अभी जो भी हैं, उसका बहुत बड़ा हिस्सा आपका शरीर है। शरीर का उपयोग करके विकास की प्रक्रिया तेज करने के विज्ञान को हठ-योग कहते हैं। “ह” सूर्य का द्योतक है और “ठ” चंद्रमा का। मानव-शरीर-तंत्र में इन दो आयामों के बीच संतुलन लाने का विज्ञान हठ-योग है।
        यह शरीर आपके आध्यात्मिक विकास का साधन भी बन सकता है और बाधा भी। मान लीजिए, आपके शरीर के किसी अंग में, जैसे हाथ, पैर या पीठ में दर्द है। जब दर्द तेज हो, तब किसी भी उच्च स्तर की चीज़ की आकांक्षा करना कठिन होता है, क्योंकि आपके जीवन में वह दर्द सबसे बड़ी चीज़ बन जाता है। हो सकता है कि दूसरे लोग यह न समझें, पर आपके लिए वही सबसे बड़ा मुद्दा है। अगर भगवान भी आपके सामने प्रकट हो जाएँ, तो उनसे भी आप पीठ-दर्द दूर करने की प्रार्थना ही करेंगे! आप कुछ और नहीं माँगेंगे, क्योंकि आप भौतिक शरीर के वश में बहुत अधिक होते हैं। जब वह वैसे काम नहीं करता, जैसे उसे करना चाहिए, तो वह आपके जीवन की हर दूसरी आकांक्षा छीन लेता है। जब शरीर पीड़ा में होता है, तो आपकी सारी लालसाएँ (crave) गायब हो जाती हैं। पीड़ा में होकर भी परे देखने के लिए अत्यधिक दृढ़ता की ज़रूरत होती है, जो अधिकतर लोगों में नहीं होती।

॥साधना॥

        अपने आसपास ध्यान दीजिए। अपने परिवार में, सहकर्मियों में और दोस्तों के बीच, क्या आप महसूस कर सकते हैं कि हर किसी के बोध का स्तर अलग होता है? इस पर बारीकी से ग़ौर कीजिए। यदि आप कुछ ऐसे लोगों को जानते जिनके पास दूसरों से बेहतर स्पष्टता (clarity) और बोध-क्षमता (Comprehension ability) है, तो उनके हावभाव पर ध्यान दीजिए कि वे शरीर को कैसे संचालित (Operated) करते हैं। उनके पास बिना किसी अभ्यास के एक खास ठहराव होता है। परंतु बस थोड़े-से अभ्यास से ही बहुत अंतर पड़ सकता है। यदि आप दिन भर में बस कुछ घंटों के लिए अपनी रीढ़ सीधी रखकर बैठते हैं, तो आप देखेंगे कि यह आपके जीवन पर अचूक प्रभाव डालेगा। आप जिस तरह से अपने शरीर को रखते हैं वही आपके बारे में लगभग हर चीज़ तय करता है।

ब्रह्मांड को डाउनलोड करना

        भारत में कुछ साल पहले तक, हर बार ऑँधी के बाद आपको छत पर जाकर अपने टी.वी. के ऐंटेना को घुमाकर सही दिशा में करना पड़ता था। उसकी दिशा सही होने पर ही आपके घर में सारी दुनिया के कार्यक्रम (program) दिखाई पड़ते थे। अन्यथा जब आप अपनी पसंद का सीरियल या क्रिकेट-मैच देख रहे होते थे, तो अचानक आपके टी.वी. स्क्रीन पर बर्फ़ का तूफ़ान दिखने लगता था।
यह शरीर भी उस ऐंटेना जैसा है : अगर आप इसे सही स्थिति में रखते हैं, तो यह अस्तित्व में मौजूद हर चीज़ के ग्रहणशील बन जाता है। यदि आपने इसे किसी और तरह से रखा, तो आप पाँच इंद्रियों से परे हर चीज़ से पूरी तरह से अनजान रहेंगे।

॥साधना॥

        अपनी रीढ़ सीधी रखते हुए किसी भी आरामदेह मुद्रा में बैठ जाइए। यदि आवश्यक हो, तो पीठ को सहारा दे सकते हैं। स्थिर रहिए। अपने ध्यान को भी धीरे-धीरे स्थिर होने दीजिए। आप ग़ौर करेंगे कि आपकी साँस धीमी हो जाएगी।
        मनुष्य की साँस धीरे चलने का क्या महत्त्व है? क्या यह बस कोई श्वास या योग से जुड़ा करतब है? नहीं, ऐसा नहीं है। एक मनुष्य एक मिनट में सामान्यतया बारह से पंद्रह बार साँस लेता है। यदि आपकी साँस बारह पर स्थिर हो जाती है, तो आप धरती के वायुमंडल की गतिविधियों को जानने लगेंगे (यानी आप पर्यावरण के बदलावों के प्रति संवेदनशील बन जाएँगे)। यदि यह घटकर नौ हो जाती है, तो धरती के दूसरे प्राणियों की भाषा जान जाएँगे। यदि यह घटकर छह हो जाती है, तो आप धरती की भाषा यानी उसकी गतिविधियों को जान जाएँगे। यदि यह घटकर तीन हो जाती है, तो आप इस सृष्टि के स्रोत की भाषा समझने लगेंगे। साँस की दर कम करने का मतलब न तो आपकी श्वसन-क्षमता को बढ़ाना है और न ही जबरन कम साँस लेना है। हठ-योग और ‘क्रिया’ से, जो एक उन्नत योग अभ्यास है, धीरे-धीरे आपके फेफड़ों की क्षमता बढ़ेगी। इससे आपके सिस्टम में एक स्थिरता आती है, जहाँ कोई जड़ता नहीं होती, कोई हलचल नहीं होती; उसे बस हर चीज़ का बोध हो जाता है।

शरीर : धरती का एक छोटा रूप

        योग के अनुसार आपके भौतिक शरीर को अन्नमयकोश यानी भोजन-शरीर कहते हैं। यह बस उस पोषण का ढेर है, जो आप पचाते हैं। आप जो भोजन खाते हैं, वह बस धरती ही तो है। आप इस धरती की छोटी-सी लहराती फसल हैं, जो इधर-उधर इतराती घूमती है और स्वतंत्र इकाई होने का दावा करती है। इस धरती पर जो भी होता है, वह आपके साथ भी होता है – किन्हीं सूक्ष्म तरीकों से और कभी-कभी स्थूल  तरीके से भी।

॥साधना॥

        धरती के संपर्क में आते ही शरीर उसके प्रति प्रतिक्रिया करता है। यही कारण है कि भारत में आध्यात्मिक लोग नंगे पैर चलते थे और सदैव धरती पर इस मुद्रा में बैठते थे, जिससे धरती के साथ उनका सर्वाधिक संपर्क कायम रहे। इस प्रकार, शरीर को अनुभव के स्तर पर याद दिलाया जाता है कि वह धरती का ही एक अंश है। शरीर को यह कभी भूलने नहीं दिया जाता कि उसका स्रोत क्या है। यदि हम उसे भूलने देते हैं, तो वह अकसर विचित्र माँगें करने लगता है; जब उसे लगातार याद दिलाया जाता है, तो वह अपनी स्थिति समझ जाता है। शरीर का धरती के साथ यह संपर्क उसके भौतिक स्रोत के साथ एक महत्त्वपूर्ण पुनर्मिलन है। यह शरीर की स्थिरता कायम करता है और मनुष्य की कायाकल्प की क्षमता बहुत अधिक बढ़ा देता है। इस बात से, बहुत सारे लोगों के इस तरह के दावे समझ में आते हैं कि केवल घर के बाहर बागबानी (gardening) जैसी साधारण गतिविधि से उनके जीवन कैसे चमत्कारी ढंग से रूपांतरित हो गए। आज, हम कई तरीकों से स्वयं को धरती से दूर कर रहे हैं, जैसे फुटपाथ बनाकर, कई-मंजिला इमारतें बनाकर, या ऊँची एड़ी के जूते-चप्पल पहनकर। इससे शरीर के अंग धरती से दूर रहते हैं और यह चीज़ बुनियादी जीवन-प्रक्रिया का दम घोंटने वाली होती है। धरती से यह दूरी मनुष्य के प्रतिरक्षा-तंत्र से जुड़ी बीमारियों और दीर्घकालिक एलर्जी के रूप में प्रकट होती है। यदि आप बार-बार बीमार पड़ते हैं, तो आप बस फर्श पर सोना शुरू कर दीजिए (या इस प्रकार कि फर्श और शरीर के बीच कम से कम शारीरिक दूरी हो)। आप एक बड़ा अंतर महसूस करेंगे। साथ ही, धरती के जितना करीब हो सके, बैठने की कोशिश कीजिए। इसके अतिरिक्त, आप एक ऐसा पेड़ खोज सकते हैं, जो ताज़ी पत्तियों या फूलों से लदा हो। आप उसके आसपास थोड़ा समय बिताइए। यदि हो सके, तो आप अपना नाश्ता या भोजन पेड़ के नीचे कीजिए। जब आप पेड़ के नीचे बैठें, तो स्वयं को याद दिलाइए, ‘यह धरती ही मेरा शरीर है। यह शरीर मैंने धरती से लिया है और धरती को वापस कर दूंगा। मैं अब सचेतन होकर धरती माता से कहता हूँ कि मुझे कायम रखे, मुझे थामे रखे, और मुझे स्वस्थ रखे।’ आप पाएँगे कि आपके शरीर की स्वस्थ होने की क्षमता बहुत अधिक बढ़ गई है। और यदि आपने अपने सारे पेड़ों का फर्नीचर बना डाला है, तो थोड़ी ताजी मिट्टी इकट्ठी कीजिए और अपने हाथों और पैरों को उससे ढककर रखिए। इस तरह बीस से तीस मिनट तक रहिए। इससे आपको शीघ्रता से स्वास्थ्य-लाभ करने में सहायता मिलेगी।

सूर्य के साथ तालमेल

        कई लोग जो योग का अभ्यास करते हैं या इसके बारे में थोड़ा जानते हैं, उनके लिए सूर्य-नमस्कार मुद्राओं का एक परिचित क्रम है। लोग सामान्य रूप से सूर्य-नमस्कार को एक व्यायाम समझते हैं। दूसरे लोगों को इससे एक तरह की सूर्य की पूजा का शक होता है। यह इन दोनों में से कुछ भी नहीं है। हाँ, यह निश्चय ही आपकी रीढ़ और मांसपेशियों को मजबूती और उससे अधिक कुछ और भी देता है, किंतु इसका उद्देश्य यह नहीं है। तो फिर जिसे अकसर सूर्य-नमस्कार करने की तरह देखा जाता है, उसका महत्त्व क्या है? पहली बात तो यह कि यह नमस्कार बिलकुल भी नहीं है। इसका शाब्दिक अर्थ है अपने भीतर सूर्य की ऊर्जाओं को व्यवस्थित करना। यह इस आसान तर्क पर आधारित है कि धरती पर सारा जीवन सौर ऊर्जा (solar energy) द्वारा संचालित है। हर चीज़ जो आप खाते हैं, पीते हैं और साँस लेते हैं, उसमें सूर्य का योगदान है। अगर आप सूर्य को अच्छी तरह “पचाना,” अपने अंदर समा लेना और अपने शरीर-तंत्र का हिस्सा बनाना सीख लेते हैं, तभी आपको इस प्रक्रिया का सचमुच लाभ मिलता है।

पाँच तत्वों की शरारत

         जीवन बस पाँच तत्त्वों का खेल है। यहाँ तक कि साँभर बनाने में भी ज़्यादा चीज़ों की ज़रूरत होती है! किंतु योग के अनुसार, चाहे वह मानव-शरीर हो या पूरा ब्रह्मांड, दोनों ही पाँच तत्त्वों – धरती, जल, अग्नि, वायु और आकाश – की जादूगरी पर आधारित हैं। इतनी जटिल संरचना और बस पाँच तत्त्व! कोई आश्चर्य नहीं कि जिन लोगों को आत्मज्ञान मिल गया है, उन्होंने अकसर जीवन को ब्रह्मांडीय मजाक कहा है।
        सृष्टि भी बस ऐसी ही है, अत्यधिक विशाल दिखने वाली। जिन्होंने अपने अंदर गहराई से झाँका है, वे जानते हैं कि उन्हें उसके विशाल रूप को देखने की आवश्यकता नहीं है। आपके अंदर होने वाली जो पाँच तत्त्वों के खेल की छोटी-सी घटना है, उसी का बस एक बढ़ा-चढ़ा रूप ही यह सारा ब्रह्मांड है। एक संपूर्ण जीवंत मनुष्य बनने के लिए बस इतनी ही आवश्यकता है!

॥साधना॥

        अपने स्वास्थ्य और शरीर के बुनियादी ढाँचे को बदलने के लिए सबसे आसान चीज़ जो आप कर सकते हैं, वह है इन पाँच तत्त्वों के साथ भक्तिभाव और आदर के साथ व्यवहार करना। बस यह आजमाकर देखिए। हर बार जब आप इनमें से किसी भी तत्त्व के साथ सचेतन रूप से संपर्क में हों (जो आप अपने जीवन में हर पल होते हैं), तो आप उसे उतने ही आदर से देखिए, जितना आदर आप उन्हें देते हैं, जिन्हें आप अपने जीवन में सर्वोच्च या महानतम मानते हैं। चाहे वे शिव हों या राम, कृष्ण, ईसा या अल्लाह (यहाँ तक कि कार्ल मार्क्स भी!)। अभी आप एक मनोवैज्ञानिक प्राणी हैं और आपका मन बड़े-छोटे की भावना से भरा हुआ है। यह प्रक्रिया बड़े-छोटे की भावना को सही कर देगी। वह साँस जो आप लेते हैं, वह भोजन जो आप करते हैं, वह पानी जो आप पीते हैं, वह धरती जिस पर आप चलते हैं, और वह आकाश जो आपको थामे हुए है – ये सभी आपको एक ईश्वरीय संभावना प्रदान करते हैं।

जब शरीर ही एक मुद्दा बन जाए

        तो, शरीर एक मुद्दा बन सकता है। एक बड़ा मुद्दा। यह आपके और आपके जीवन के आनंद के बीच एक बाधा बन जाता है। यदि आप अपने शरीर को एक खास तरह से रखना चाहते हैं, तो अपने शरीर की भोजन, नींद और काम से जुड़ी विभिन्न गतिविधियों पर ध्यान देना महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

॥साधना॥

        यह महत्त्वपूर्ण है कि आप दिन भर खाते ही न रहें। यदि आपकी आयु तीस साल से कम है, तो आपके लिए अपनी दिनचर्या में तीन भोजन शामिल करना उत्तम होगा। यदि आप तीस वर्ष से अधिक के हैं, तो इसे घटाकर दिन में दो बार करना अच्छा रहेगा। हमारे शरीर और दिमाग़ सबसे अच्छा तब काम करते हैं, जब पेट ख़ाली होता है। तो आप इस बात के प्रति सचेत रहिए कि आप इस प्रकार भोजन करते हैं कि ढाई घंटे के भीतर भोजन आपके पेट से निकल जाता है, और बारह से अठारह घंटे के भीतर पूरी तरह से शरीर से बाहर चला जाता है। इस साधारण-सी जागरूकता से आप अधिक ऊर्जा, फुरती और सतर्कता का अनुभव करेंगे। आप अपने जीवन में चाहे जो भी करते हों, एक सफल जीवन के घटक यही हैं।

शरीर के लिए ईंधन

        आपका शरीर बस खाने का एक ढेर है। योग भोजन पर इतना ध्यान इसलिए देता है, क्योंकि जिस किस्म का भोजन आप इस सिस्टम में डालते हैं, उसका इस बात पर ज़बरदस्त प्रभाव पड़ता है कि आपका शरीर किस तरह का होगा। क्या खाना चाहिए और कब खाना चाहिए, इसके पीछे एक पूरा योग-विज्ञान है। जिस तरह की चीज़ें आप अपने अंदर डालते हैं, वही तय करता है कि आपका शरीर कितना स्वस्थ और निरोग होगा तथा कितने आराम से होगा।

॥साधना॥

        आप अपने लिए सबसे अच्छे भोजन का इंतज़ाम करें, किसी चीज़ पर गुस्सा हो जाएँ, सारी दुनिया को कोसें, और फिर भोजन करें। अब आप देखें कि उस दिन भोजन आपके साथ कैसा व्यवहार करता है। अगले भोजन से पहले, अपने खाने की ओर वैसे आदर से देखें, जिस आदर के योग्य एक जीवन प्रदान करने वाला पदार्थ होता है, और फिर उसे खाएँ। अब आप देखें कि आपका भोजन आपके साथ कैसा व्यवहार करता है। (बेशक, अगर आप समझदार हैं, तो पहले को छोड़ देंगे और केवल दूसरे को ही अपनाएँगे!) अधिकतर लोग अपने भोजन की मात्रा एक-तिहाई (1/3)  तक घटा सकते हैं और फिर भी उनका वजन कम नहीं होगा और वे अधिक ऊर्जावान बने रह सकते हैं। बात बस इतनी है कि आपने अपने अंदर कितनी ग्रहणशीलता (Receptivity) पैदा की है। उसी के अनुसार आपका शरीर ग्रहण करता है। यदि आप तीस प्रतिशत भोजन खाकर भी उतना ही काम कर सकते हैं और शरीर की सारी प्रक्रियाएँ कायम रखते हैं, तो इसका मतलब है कि आप एक अधिक कार्यकुशल मशीन चला रहे हैं।

शाकाहार बनाम मांसाहार!

         शाकाहार और मांसाहार के समर्थकों के बीच एक बहस चलती रहती है। शाकाहारी ज़्यादा पवित्र होने का नाटक करते हैं, जबकि मांसाहारी अपने आपको अधिक मजबूत और दुनिया के लिए उपयुक्त मानते हैं, क्योंकि वे धरती के सारे जीवों को अपने आहार की तरह देखते हैं। योग के अनुसार, हम जो भोजन करते हैं, उसका धर्म, दर्शन, अध्यात्म या नैतिकता से कुछ भी लेना-देना नहीं होता। सवाल केवल इस बात का है कि हमारा शरीर जिस किस्म का है, वह भोजन उसके अनुकूल है या नहीं?
         यदि आप जानवरों के जबड़ों पर ग़ौर करें, तो आप देखेंगे कि मांसाहारी जानवर के जबड़े केवल काटने का काम कर सकते हैं, जबकि शाकाहारी जानवरों के जबड़े काटने के अलावा पीसने का काम भी कर सकते हैं। बेशक, हम इंसानों के पास काटने और पीसने दोनों की ही क्षमता होती है।
         इसके बाद, आप अगर आहार-नली (alimentary canal) पर ग़ौर करें, तो शाकाहारियों में उसकी लंबाई उनके शरीर की तुलना में पाँच से छह गुना अधिक होती है। मांसाहारियों में यह उनके शरीर के दो से तीन गुना तक लंबी होती है। यदि आप कच्चा मांस खाते हैं, तो इसे आपके सिस्टम से बाहर आने में 70 से 72 घंटे लगते हैं। पका हुआ मांस 50 से 52 घंटे, पकी हुई सब्ज़ी 24 से 30 घंटे, कच्ची सब्ज़ी 12 से 15 घंटे और फल डेढ़ से तीन घंटे का समय लेगा। यदि आप कच्चे मांस को 70 से 72 घंटे तक बाहर रख दें, तो वह सड़ जाता है − मांस का एक छोटा टुकड़ा भी आपको घर से बाहर भागने पर मजबूर कर सकता है! गर्मियों में जब तापमान और उमस बहुत ज़्यादा होती है, तब सड़न और भी तेज़ी से होती है। आपका पेट तो हमेशा ही एक उमस भरा स्थान रहता है। वहाँ यदि मांस 72 घंटे तक रह जाए, तो वह बहुत अधिक सड़ जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि बैक्टीरिया की गतिविधि बहुत बढ़ गई है, और यह सुनिश्चित करने के लिए कि बैक्टीरिया का स्तर आपको बीमार करने की हद तक न ले जाए, आपके शरीर को बहुत अधिक ऊर्जा ख़र्च करनी पड़ती है।

पाचन का रहस्य

         पाचन का एक और पहलू यह है कि कुछ ख़ास तरह के भोजन को पचाने के लिए हमारा शरीर जहाँ क्षार पैदा करता है, वहीं कुछ दूसरे प्रकार का भोजन पचाने के लिए यह अम्ल पैदा करता है। यदि आप कई तरह का भोजन एक-साथ कर लेते हैं, तो आपका पेट भ्रम में पड़ जाता है और क्षार और अम्ल दोनों पैदा कर देता है। ये दोनों एक-दूसरे को निष्क्रिय कर देते हैं। इससे पाचन-रसों का लाभ नहीं मिल पाता। इस कारण भोजन पेट में आवश्यकता से अधिक समय तक बना रहता है और कोशिकाओं का कायाकल्प करने की हमारी क्षमता कमज़ोर पड़ जाती है। इससे ऊर्जा-प्रणाली में जड़ता भी पैदा होती है, जिसे हम ‘तमस’ कहते हैं। यह लंबे समय तक आपके गुणों पर असर डालती है और न केवल आप जो हैं बल्कि आप जो हो सकते हैं, उसे भी प्रभावित करती है।

॥साधना॥

        प्रतिदिन भोजन करने से कुछ मिनट पहले एक चम्मच देसी घी खाने से आपका पाचन-तंत्र कमाल का हो जाता है। अगर आप घी को चीनी के साथ लेते हैं, जैसा कि मिठाई में होता है, तो यह पचकर वसा का रूप ले लेता है। किंतु बिना चीनी के साथ घी का सेवन करने से यह पाचन-नली को साफ़, चिकना और स्वस्थ रख सकता है। इसके साथ ही, मलाशय की सफ़ाई का प्रभाव तुरंत आपकी त्वचा में एक चमक और जीवंतता के रूप में दिखेगा। जो लोग दूध के उत्पादों का सेवन करना पसंद नहीं करते, वे लोग भी इसे आजमा सकते हैं, क्योंकि घी आपके सिस्टम से लगभग बिना पचे ही बाहर निकल जाता है।

उपवास का महत्व

         यदि आप शरीर के स्वाभाविक चक्र पर ग़ौर करते हैं, तो आप पाएँगे कि मनुष्य का शरीर-तंत्र चालीस से अड़तालीस दिनों के एक चक्र से गुज़रता है। इस चक्र को ‘मंडल’ कहते हैं। प्रत्येक चक्र में तीन दिन ऐसे होते हैं, जब आपके शरीर को भोजन की आवश्यकता नहीं होती। यदि आप अपने शरीर के काम करने के तरीके के बारे में सचेतन हैं, तो आप इस बात के प्रति जागरूक हो जाएँगे कि किस ख़ास दिन आपके शरीर को भोजन नहीं चाहिए। वह दिन आप बिना किसी प्रयास के भोजन के बिना गुज़ार सकते हैं। यहाँ तक कि कुत्तों और बिल्लियों को भी यह ज्ञान होता है। किसी ख़ास दिन वे भी भोजन नहीं करते।

॥साधना॥

        आज से 25 प्रतिशत प्राकृतिक, अनपका या सजीव भोजन − फल और सब्ज़ी − लेना शुरू कीजिए, और धीरे-धीरे करीब चार से पाँच दिन में उसे 100 फ़ीसदी तक ले जाइए। उस पर एक-दो दिन तक कायम रहिए, और फिर धीरे-धीरे 10 फ़ीसदी की दर से कम करते जाइए। अगले पाँच दिन में आप 50 प्रतिशत प्राकृतिक भोजन और 50 प्रतिशत पके भोजन पर पहुँच जाएँगे। यह उन लोगों के लिए आदर्श भोजन है, जो हर दिन सोलह से अठारह घंटे तक सक्रिय रहना चाहते हैं। याद रखिए, यदि आप पका भोजन करते हैं, तो आप एक समय का भोजन पंद्रह मिनट में भी कर सकते हैं। यदि आप प्राकृतिक या कच्चा भोजन करते हैं, तो आपको भोजन की मात्रा के अनुसार अधिक समय लगेगा, क्योंकि आपको उसे अधिक देर तक चबाना होगा। लेकिन शरीर की प्रकृति ऐसी है कि वह पंद्रह मिनट बाद आपसे कह देगी कि बस हो गया, इसलिए लोग कम खाने लगते हैं, वजन कम होता है और तब उन्हें लगता है कि कच्चा भोजन उनके लिए अच्छा नहीं है। आपको बस यह ज्ञान होना चाहिए कि आप कितना खा रहे हैं।

बेचैनी से चैन

        आप रात में सोते हैं, इस कारण आपकी सुबह और शाम के बीच कुछ फर्क होता है। नींद से मिले आराम की मात्रा से यह अंतर पड़ रहा है। यदि आप दिन भर सारे काम करते हुए भी आराम की स्थिति में बने रह सकें, तो आप ऊर्जा और उत्साह की दृष्टि से शाम को भी लगभग वैसे ही रहेंगे, जैसे कि आप सुबह थे।
शरीर को नींद की नहीं, आराम की ज़रूरत होती है। यदि आप दिनभर शरीर को आराम की स्थिति में रखते हैं, तो आपकी नींद की अवधि स्वाभाविक रूप से कम हो जाएगी। यदि आपका काम, आपका टहलना या व्यायाम करना भी आपके लिए आराम की तरह है, तो आपके सोने की अवधि और कम हो जाएगी।

 ॥साधना॥

         यदि आप बिना तकिए के या बहुत पतला तकिया लगाकर सोते हैं, जो रीढ़ को दबने नहीं देता, तब मस्तिष्क में न्यूरॉन का और स्नायु-तंत्र (nerve fibers) में कोशिकाओं का पुनर्निर्माण काफी अच्छा होगा। यदि आप बिना तकिए के सोते हैं, तो करवट में लेटने के बजाय पीठ के बल चित होकर लेटना सबसे अच्छा रहता है। योग में इस स्थिति में लेटने को शवासन कहते हैं| यह शरीर के शुद्धिकरण और पुनर्निर्माण को बढ़ाता है, ऊर्जा-तंत्र में प्रवाह के गतिरोध को समाप्त करता है। इससे आराम और जीवंतता आती है।

सेक्स : घटिया या पवित्र?

        सेक्स स्वाभाविक है; यह शरीर में है। पर कामुकता ऐसी चीज़ है जिसे आपने खोजा है; यह मनोवैज्ञानिक है। यदि सेक्स शरीर में है, तो यह ठीक है, यह सुंदर है। जिस पल यह आपके दिमाग़ में घुस जाता है, यह एक विकार बन जाता है। इसका आपके दिमाग़ के साथ कोई काम नहीं है। सेक्स आपका एक बहुत छोटा पहलू है, लेकिन आज यह बहुत विशाल हो गया है। कई लोगों के लिए सेक्स ही जीवन बन गया है। यदि आप आधुनिक समाज पर नज़र डालें, तो मैं तो कहूँगा कि लोगों की नब्बे प्रतिशत ऊर्जा या तो सेक्स के पीछे भागने में या उससे बचने में ख़र्च हो रही है। सेक्स बस कुदरत की एक चाल है, ताकि प्रजनन होता रहे। यदि विपरीत लिंगों में आकर्षण न हो, तो प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी। किंतु अब हमने स्त्री और पुरुष के बीच इतना ज़्यादा फर्क बना दिया है, मानो वे दो अलग-अलग प्रजातियाँ हों। इस धरती पर किसी दूसरे जीव में सेक्स को लेकर इस तरह की समस्याएँ नहीं हैं, जैसी मनुष्यों में हैं। जानवरों में यह इच्छा उनके शरीर में कुछ खास समय पर मौजूद होती है, अन्यथा वे उससे मुक्त रहते हैं। मनुष्यों के साथ यह उनके दिमाग़ में हर समय बैठी रहती है।

॥साधना॥

        दो मनुष्यों द्वारा किए जा सकने वाले सारे प्रेममय कार्यों में से सबसे सरल कार्य है हाथों को पकड़ना, और अकसर यह सबसे घनिष्ठ कार्य बन सकता है। ऐसा क्यों है? मूलतः, हाथों और पैरों की प्रकृति ऐसी है कि शरीर के इन दो अंगों में ऊर्जा-तंत्र एक बहुत ही अनोखे तरीके से अभिव्यक्त होता है। शरीर के किन्हीं भी दूसरे अंगों के बीच संपर्क की अपेक्षा, दो हथेलियों के एक-साथ आने में कहीं अधिक घनिष्ठता होती है। इसे आप स्वयं आजमा सकते हैं। आपको किसी साथी की आवश्यकता भी नहीं है। जब आप दोनों हाथ जोड़कर रखते हैं, तब आपके भीतर मौजूद दो ऊर्जा-आयाम (दाहिना-बायाँ, पौरुष-स्त्रैण, सूर्य-चंद्र, यिन-याँग आदि) एक खास तरह से जुड़ते हैं, और आप अपने भीतर ही एकत्व का भाव महसूस करने लगते हैं। पारंपरिक भारतीय नमस्कार के पीछे यही तर्क है। यह सिस्टम को तालमेल में लाने का तरीका है।
        अपने दोनों हाथ जोड़िए, और कोई भी वस्तु जो आप खाते हैं, या जीवन के जिस भी रूप से आपका सामना होता है, उस पर प्रेमपूर्वक ध्यान केंद्रित कीजिए। जब आप इस जागरूकता के भाव को अपने प्रत्येक सरल से सरल कार्य में ले आते हैं, तो आपके जीवन का अनुभव फिर कभी वही नहीं रहेगा। यह भी संभावना है कि अगर आप अपने हाथ जोड़ते हैं, तो आप दुनिया को एक कर सकते हैं!

हार्मोन का कब्जा

        एक बार मुझसे पूछा गया, ‘क्या यह अजीब नहीं है कि लोग किसी दूसरी शारीरिक इच्छा की अपेक्षा सेक्स के प्रति ज़्यादा पागल हैं?’ इसमें कुछ भी अजीब नहीं है। यह बस हारमोन्स द्वारा आप पर कब्ज़ा है। वैसे भी, सबसे शक्तिशाली इच्छा सेक्स नहीं, बल्कि भूख है। अधिकतर समय सेक्स के बारे में सोचना बस एक विवशतापूर्ण व्यवहार है। आप जब एक बच्चे थे, तब इससे फ़र्क नहीं पड़ता था कि किसी के प्रजनन-अंग (Reproductive organ) क्या हैं। लेकिन जैसे ही हारमोन्स आपके भीतर अपना असर दिखाने लगे, आप उससे आगे कुछ नहीं सोच पाते। और आप देखेंगे कि एक खास उम्र के बाद, जब हारमोन्स का खेल शांत हो जाता है, तब एक बार फिर यह मायने नहीं रखेगा। आप पीछे मुड़कर देखेंगे और आपको यकीन नहीं होगा कि आप इसके पीछे पागल थे।

मन

चमत्कार या जंजाल?

        अगर आप स्वयं से कहते हैं कि आप किसी खास विचार के बारे में नहीं सोचना चाहते, तो वो ठीक पहली चीज़ होगी जो आपका दिमाग पैदा करेगा! मनुष्य के मन की यही प्रकृति है।

॥साधना॥

        स्वयं को कम से कम हर घंटे में एक बार याद दिलाते रहिए कि हर चीज़ जो आप ढो रहे हैं, जैसे आपका थैला, आपका पैसा, आपके रिश्ते, और आपके शरीर व दिल में भारीपन – सब आपने समय के साथ इकठ्ठी की हैं। अगर आप इस बुनियादी सच्चाई के प्रति अधिक, और अधिक जागरूक बन जाते हैं, और जैसे-जैसे आपके भीतर पहचान न जोड़ने की प्रक्रिया गहरी होती है – और साथ ही, अपने आसपास हर चीज़ के प्रति आपमें एक गहरी सहभागिता की भावना बनी रहती है – तब आप मानव-मन के क्लेश और पागलपन से ध्यान की तरफ़ बढ़ने लगेंगे।

जीवन से हटकर स्वयं के बारे में सोचना

        विचार वास्तव में क्या हैं? यह बस वह जानकारी है, जो आपने इकट्ठी की हुई है और आप उसे फेंट रहे हैं। मनुष्य का मन बस पुरानी जानकारी को फेंटने का काम कर रहा है। तो मैं पूछता हूँ : आप जीवन जीने वाले व्यक्ति बनना चाहते हैं या सोचने वाले व्यक्ति? अभी, नब्बे प्रतिशत समय आप केवल जीवन के बारे में सोचते रहते हैं, न कि जीवन जी रहे होते हैं। आप इस दुनिया में जीवन को अनुभव करने आए हैं या इसके बारे में सोचने आए हैं? जीवन-प्रक्रिया की तुलना में आपकी मानसिक प्रक्रिया बहुत छोटी चीज़ है, लेकिन अभी यह कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो गई है। अब मानवता के लिए समय आ गया है कि वह जीवन-प्रक्रिया को फिर से महत्त्वपूर्ण बनाए। इसकी तुरंत आवश्यकता है। हमारा जीवन इसी पर निर्भर है।

॥साधना॥

        अपने नल को इस तरह से खोलिए कि हर मिनट में उससे बस पाँच या दस बूँद पानी ही गिरे। अब अगर आप हर बूँद को बहुत ध्यान से देखते हैं – यह कैसे बनती है, कैसे गिरती है, कैसे ज़मीन से टकराकर बिखर जाती है। हर दिन इसे पंद्रह से बीस मिनट तक कीजिए। आप धीरे-धीरे अपने भीतर और अपने आसपास की कई चीज़ों के बारे में जागरूक हो जाएँगे, जिनके बारे में अभी आप बिलकुल बेखबर हैं। यह सरल अभ्यास संवेदनशीलता और स्पष्टता की ऐसी प्रक्रिया शुरू कर सकता है, जिससे आप अपनी कल्पना से भी कहीं अधिक हासिल कर सकते हैं।

पहचान की जंजीर

        एक बार की बात है … राजनीतिक कारणों से, महान बादशाह अकबर को अपनी माँ से अलग होना पड़ा। तो उनकी देखभाल के लिए एक औरत को रखा गया, जिसका अपना भी एक बेटा था। उस औरत ने अकबर को अपना दूध पिलाया, और बाद में उसे इसके लिए इनाम दिया गया। उसका बेटा उम्र में अकबर से थोड़ा बड़ा था। उसे कुछ गाँव दिए गए और एक छोटा राजा बना दिया गया। कई सालों बाद, अकबर मशहूर बादशाह बन गए, लेकिन उस लड़के के पास अपना राज्य चलाने की बुद्धि और क्षमता नहीं थी, और जो-कुछ भी संपत्ति उसको दी गई थी, उसने सब लुटा दी। वह बहुत गरीब हो गया। जब वह बत्तीस साल का हुआ, तो उसके मन में एक शानदार विचार आया। उसने सोचा, ‘चूँकि बादशाह ने और मैंने एक ही माँ का दूध पिया है, तो हम दोनों एक तरह से भाई-भाई हुए। और चूँकि मैं पहले पैदा हुआ था, तो मैं बड़ा भाई हूँ!’वह अकबर के पास गया और उन्हें वही कहानी सुनाई, ‘देखो, हम दोनों भाई हैं और मैं तुमसे बड़ा हूँ। लेकिन मेरी हालत देखो : मैं गरीब हूँ और तुम बादशाह हो! तुम मुझे इस हाल में कैसे छोड़ सकते हो?’ अकबर बहुत भावुक हो गए। उन्होंने उसका स्वागत किया, महल में रखा, और एक राजा जैसा सम्मान दिया। उन्होंने हर किसी से उसका अपने बड़े भाई की तरह परिचय कराया। कुछ दिनों तक यह सब चलता रहा। फिर उस आदमी को किसी काम से अपने गाँव जाने की ज़रूरत हुई।
       अकबर ने कहा, ‘मेरे भाई, जो गाँव तुम्हें दिए गए थे, उन्हें तुमने खो दिया है। अब मैं तुम्हें पाँच नए गाँव दूँगा, जिन पर तुम शासन कर सकते हो। वह तुम्हारा अपना एक छोटा राज्य होगा।’ तब उस आदमी ने कहा,अगर मेरे पास भी अच्छे सलाहकार और मंत्री होते, तो मैं भी तुम्हारी तरह बड़ा साम्राज्य बना लेता। और तो और, तुम्हारे पास बीरबल है! वह कितना होशियार है। अगर मेरे पास उसके जैसा कोई होता, तो मैं भी महान बादशाह बन जाता।’ इस पर बड़े दिल वाले अकबर ने कहा, ‘अगर तुम चाहो, तो बीरबल को अपने साथ ले जाओ।’ अकबर ने बीरबल को बुलाया और आज्ञा दी, ‘तुम्हें मेरे बड़े भाई के साथ जाना होगा।’ बीरबल ने सोचकर कहा, ‘जहाँपनाह, आपके बड़े भाई को मुझसे बेहतर कोई मिलना चाहिए। मेरा बड़ा भाई क्यों नहीं? मैं अपने स्थान पर उन्हें भेज सकता हूँ।’ अकबर को लगा कि यह बड़ा अच्छा विचार है, क्योंकि वे भी बीरबल को खोना नहीं चाहते थे। खुश होकर उन्होंने कहा, ‘यह बड़ी अच्छी बात है। उन्हें तुरंत बुलाओ।’ अगले दिन जब वह आदमी अपने नए राज्य के लिए रवाना होने वाला था, तब दरबार में एक शानदार विदाई-समारोह का आयोजन किया गया। हर कोई वहाँ मौजूद था और इंतजार कर रहा था कि बीरबल कब अपने बड़े भाई को लेकर वहाँ आएँगे। तभी बीरबल वहाँ अपने साथ एक बैल को लेकर पहुँच गए। अकबर ने क्रोध से भरकर कहा, ‘क्या तुम मेरा और मेरे भाई का अपमान करने की कोशिश कर रहे हो?’ बीरबल ने कहा, ‘नहीं जहाँपनाह, यह मेरा बड़ा भाई है। हम दोनों ने एक ही माँ का दूध पिया है।’
       एक बार जब आपकी बुद्धि किसी चीज़ के साथ अपनी पहचान जोड़ लेती है, तब आप उसी पहचान के दायरे में काम करते हैं। आप जिस किसी चीज़ के साथ पहचाने जाते हैं, आपके सारे विचार और भावनाएँ उसी पहचान से प्रवाहित होती हैं। मान लीजिए कि अभी आप स्वयं को एक आदमी के तौर पर पहचानते हैं, तो आपके सारे विचार और भावनाएँ उसी पहचान से पैदा होंगी। अगर आप स्वयं को अपनी राष्ट्रीयता या धर्म से जोड़ लेते हैं, तो आपके विचार उन्हीं पहचानों से निकलेंगे।

॥साधना॥

        बस एक घंटे के लिए बिलकुल अकेले बैठिए। न पढ़िए, न टीवी देखिए, न फ़ोन पर बात कीजिए, किसी से कोई संवाद मत कीजिए। कुछ भी मत कीजिए। बस इस बात पर ग़ौर कीजिए कि उस एक घंटे के दौरान आपके मन में किस तरह के विचार हावी रहते हैं – भोजन, सेक्स, आपकी कार, आपका फर्नीचर, गहने या कुछ और। अगर आप यह पाते हैं कि आप बार-बार लोगों या चीज़ों के बारे में सोचते हैं, तो आपकी पहचान असल में आपके शरीर से है। अगर आपके विचार इस बारे में हैं कि आप दुनिया में क्या करना चाहेंगे, तो आपकी पहचान वास्तव में आपके मन से है। दूसरी हर चीज़ इन दो पहलुओं के जटिल मेल से जुड़ी है। यह आकलन नहीं है। यह बस इतना जानने का तरीका है कि आप जीवन के किस चरण में हैं। आप कितनी तेजी से विकास करना चाहते हैं, यह आपके चुनावों पर निर्भर करता है।

बुद्धि को जागरूक बनाएँ

         योग-पद्धति  के अनुसार, मन को सोलह आयामों में बाँटा गया है। इन सोलह को चार भागों में रखा गया है। मन के अंतर करने वाले आयाम को बुद्धि कहते हैं; मन के संचय करने वाले आयाम यानी स्मृति को “मानस” कहते हैं; यह जानकारी इकट्ठी करता है। इसका जो तीसरा आयाम है, उसे जागरूकता या प्रज्ञा या “चित्त” कहते हैं; यह बुद्धि और स्मृति से परे है। चौथे आयाम “अहंकार” हैं; इससे आपको अपने व्यक्तित्व और पहचान का बोध होता है।

॥साधना॥

        अगर आप तनी हुई रस्सी पर चलते हैं, तो आपके पास जागरूक रहने के अलावा और कोई रास्ता नहीं होता। अगर आपकी बुद्धि लगातार अच्छे और बुरे में से चयन कर रही है, तो यह एक पूर्वाग्रह-ग्रस्त बुद्धि बन गई है। और जब यह दुनिया को अच्छे और बुरे में छाँटने में व्यस्त हो, तो आप शर्तिया रस्सी से गिर जाएँगे। उस रस्सी के शाब्दिक अर्थ पर मत जाइए। आप बस शरीर की हरकतों और हाव-भाव में कुछ हद तक सटीकता लाने की कोशिश कर सकते हैं। (अगर आप हठ-योग-साधना करते हैं, तो यह खुद-ब-खुद होना चाहिए।) उदाहरण के लिए, अगर आप फर्श पर सीधी लाइन देखते हैं, तो सहज गति कायम रखते हुए उस लाइन की सीध में चलने की कोशिश कीजिए। यह खुद के प्रति सतर्क रहने के बारे में नहीं, बल्कि सटीक बनने के बारे में है। अपने शरीर के साथ ऐसा करके देखिए। हर हरकत में, हर हाव-भाव में सटीकता लाइए। यह अपनी बुद्धि को जागरूकता में डुबोने का एक तरीका है।

जागरूकता ही जीवंतता है

        सबसे पहले, हमें यह अंतर समझना होगा : जागरूकता मानसिक सतर्कता नहीं है। दिमाग की सतर्कता केवल दुनिया में खुद को कायम रखने में आपकी क्षमता बढ़ाती है। यह सतर्कता उस मायने में है, जो एक कुत्ते में होती है – आत्म-संरक्षण (Self preservation) के लिए उपयोगी, न कि आत्म-विस्तार (Self-expansion) के लिए। जागरूकता कोई ऐसी चीज़ नहीं है, जो आप करते हैं। आप ही जागरूकता हैं। जागरूकता ही जीवंतता है।
 आधुनिक समाज ने खुद को संकट में डालकर मन के जिस आयाम को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया है, वह है जागरूकता या “चित्त।” यह वह प्रज्ञा (Wisdom) है, जो स्मृति (Memory) से पूरी तरह से बेदाग है। यह मन का सबसे गहरा आयाम है और आपको सृष्टि के आधार से जोड़ता है। जब आप इस आयाम के संपर्क में होते हैं, तो आप जागरूकता की उच्च अवस्था में होते हैं, जो आपको पूरी तरह से सचेतन और साथ ही मस्त होने देता है – और वह भी बिना किसी बाहरी उद्दीपन के! जब आप चित्त तक पहुँचना सीख लेते हैं, तो आनंदमय होना बिलकुल स्वाभाविक है।
        नींद, जागृति और मृत्यु – सभी जागरूकता के बस अलग-अलग स्तर हैं। मान लीजिए कि आप ऊंघ रहे हैं और किसी ने आपको हिलाकर जगा दिया। बस! एक पल में दुनिया वापस आ जाती है! यह कोई छोटी बात नहीं है। आपने एक पल में पूरे अस्तित्व को फिर से रच लिया। वह दुनिया, जो आपके अनुभव से गायब थी, अचानक प्रकट हो जाती है। सात दिनों में नहीं – बल्कि बस एक पल में।

॥साधना॥

अगर आप मृत्यु के पल में जागरूक हैं, तो आप मृत्यु के परे भी जागरूक रहेंगे। इसका अभ्यास सोने के साथ कीजिए। नींद कुछ और नहीं, बल्कि अस्थायी मृत्यु है। हर रात को आपको एक ज़बरदस्त संभावना दी जाती है – मृत्यु के बाद के आयाम के बारे में जागरूक बनने के लिए। आप इस प्रयोग को आज रात ही आजमा सकते हैं। जब आप जागी हुई अवस्था से नींद की ओर बढ़ते हैं, उस क्षण जागरूक रहने की कोशिश कीजिए। यह अभ्यास बिस्तर पर लेटे हुए किया जा सकता है। अगर आप नींद में पहुँचने से पहले, जागे हुए आखिरी पल में जागरूक रह सकते हैं, तो नींद के दौरान भी जागरूक रहेंगे। आप देखेंगे कि यह काफी कठिन है। तो एक और चीज़ है, जो आप कर सकते हैं। अगर आप अलार्म से उठने के आदी हैं, तो ऐसा किसी ध्वनि के माध्यम से कीजिए; कोई धुन या कोई मंत्रोच्चार, जो आपको आपकी जागरूकता की याद दिलाए। आप इस संबंध को बनाने के लिए स्वयं को आसानी से प्रशिक्षित कर सकते हैं। यह आपकी जागरूकता के लिए अलार्म बन सकता है। जाहिर है कि आप सो जाने के लिए अलार्म का इस्तेमाल नहीं कर सकते! लेकिन सच्चाई यह है कि जब तक आप अपने शरीर की पहचान को स्वयं से पूरी तरह से अलग नहीं करते, जागने से सोने की ओर सचेतन होकर जाना सरल नहीं है। जागने के वक्त के पहले पल में यह देखिए कि क्या आप किसी चीज़ के प्रति जागरूक हो सकते हैं – जैसे आपकी साँँस या आपका शरीर। यह चीज़ बाद में आपकी तब सहायता करेगी, जब आप सोने जाना चाहते हैं। अगर आप जागरूकता के साथ जागना और जाग्रत अवस्था से सोते वक्त जागरूक रहना सीख लेते हैं, तो आप मृत्युहीन हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि जब शरीर त्यागने का समय आता है, तब आप यह पूरी जागरूकता में कर सकते हैं। उस पल के पास पहुँचना ही आपके शरीर और मन के काम करने के तरीके को बदल देगा, और आपके जीवन की गुणवत्ता को अद्भुत ढंग से परिवर्तित कर देगा।

विचारों से परे है प्रज्ञा (Wisdom)

        क्या आपने कभी मधुमक्खी के छत्ते को ग़ौर से देखा है? भले ही आपने कोई उन्नत इंजीनियरिंग कोर्स क्यों न किया हो, मधुमक्खी के छत्ते से फिर भी कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। यह इंजीनियरिंग की एक शानदार मिसाल है! यह सचमुच सबसे अच्छा अपार्टमेंट-परिसर है, जिसके बारे में आपने कभी कल्पना तक नहीं की होगी। इसे बड़ी खूबसूरती से बनाया गया होता है, और किसी भी मौसम में आपने शायद ही कभी मधुमक्खी के किसी छत्ते को पेड़ से गिरते देखा होगा। हालाँकि इसकी संरचना बड़ी ही अद्भुत होती है, लेकिन क्या मधुमक्खियों के दिमाग में इसकी इंजीनियरिंग की योजना होती है? नहीं। यह योजना उनके शरीर में होती है। उनको बिलकुल ठीक-ठीक पता होता है कि क्या करना है, क्योंकि उनके सिस्टम में ही इसका खाका मौजूद होता है।
        आध्यात्मिक ज्ञान भी हमेशा इसी तरह दिया जाता था – विचारों से नहीं, शब्दों से नहीं, बल्कि ठीक उसी तरह से, जैसे एक मधुमक्खी छत्ता बनाने की समझ को पीढ़ी-दर-पीढ़ी देती है। यह एक प्रकार से “प्रज्ञा” का वैसा का वैसा संचार या “डाउनलोड” है। एक बार जब यह डाउनलोड हो जाता है, तो वह हर चीज़, जिसे आपको जानने की ज़रूरत है, आपके भीतर मौजूद होती है।

॥साधना॥

       मन से बस यह खयाल निकालने की कोशिश कीजिए कि विचार ही बुद्धिमत्ता है। एक परमाणु से लेकर विशाल ब्रह्मांड तक के सृजन की संपूर्ण प्रक्रिया प्रज्ञा की एक अद्भुत अभिव्यक्ति है। अभी आपके शरीर के अंदर एक स्पंदित होती बुद्धिमत्ता मौजूद है, जो सृष्टि का ही स्रोत है। क्या आप अपनी बुद्धि से, जिसे आप बहुत काबिल समझते हैं, अपने शरीर की सिर्फ एक कोशिका के क्रियाकलाप को उसकी संपूर्णता में समझ सकते हैं? बुद्धि के फंदे से विशाल प्रज्ञा की गोद में जाने के लिए पहला कदम यह पहचानना है, कि जीवन का हर पहलू – रेत के एक कण से लेकर पहाड़ तक, एक बूँद से सागर तक, परमाणु से ब्रह्मांड तक – आपकी क्षुद्र बुद्धि की तुलना में एक कहीं विशाल प्रज्ञा की अभिव्यक्ति है। अगर आप यह एक कदम उठा लेते हैं, तो जीवन आपसे बोलने लगेगा, जैसा पहले कभी नहीं हुआ होगा।

नैतिकता का बोझ

        एक बार की बात है … एक दिन दो आइरिश आदमी लंदन के वेश्यालय के बाहर सड़क पर काम कर रहे थे। उन्होंने एक प्रोटेस्टंट मंत्री को उस तरफ़ आते देखा। उसने अपना कॉलर ऊपर किया, सिर झुकाया और चुपचाप वेश्यालय में दाखिल हो गया।
उन्होंने एक-दूसरे को देखा और कहा, ‘देखो, एक प्रोटेस्टंट से और क्या उम्मीद की जा सकती है?’
वे दोनों फिर काम में लग गए।
कुछ देर बाद एक यहूदी धर्मगुरु आया। उसने अपने गले में इस तरह मफलर लपेट रखा था कि उसका चेहरा भी साफ नहीं दिख रहा था। वह भी छिपकर वेश्यालय में घुस गया। इससे उनको बहुत तकलीफ हुई और उन्होंने दुःखी होकर अपना सिर हिलाया, ‘यह क्या हो रहा है? जमाना बहुत खराब हो गया है। एक धार्मिक आदमी वेश्यालय में! आखिर ये क्या हो रहा है?’ कुछ देर बाद वहाँ का स्थानीय बिशप आया। उसने भी इधर-उधर देखा, अपने चोगे को चारों ओर लपेटा और वेश्यालय में जा घुसा।
अब एक ने दूसरे की तरफ़ मुड़कर कहा, ‘वहाँ ज़रूर कोई न कोई लड़की बीमार होगी।’
 जिस पल आप गहरी पहचान जोड़ लेते हैं, आप जीवन की समझ खो देते हैं! अच्छे और बुरे, सही और गलत की सोच, सब आपके दिमाग की उपज हैं। उनका जीवन से कोई लेना-देना नहीं है। सौ साल पहले जो चीज़ नैतिक मानी जाती थी, आज वह असहनीय हो गई है। आप जिसे बहुत अच्छा समझते हैं, आपके बच्चे उससे नफरत करते हैं। अच्छाई को लेकर आपकी सोच एक स्तर पर जीवन के खिलाफ एक पूर्वाग्रह है।

मन एक कल्पवृक्ष

       ऐसा क्यों होता है कि किसी-किसी इंसान को सफलता बड़ी आसानी और सहजता से मिल जाती है, जबकि दूसरे के लिए यह एक संघर्ष बन जाती है? इसका कारण वास्तव में बस इतना है : पहले इंसान ने अपने मन को उस तरह से सोचने के लिए व्यवस्थित (Organized) कर लिया है जैसा वह चाहता है, जबकि दूसरा अपने ही हित के खिलाफ सोचता है।
        एक सुस्थापित (Well established) और सुव्यवस्थित (Well organized) मानव-मन को “कल्पवृक्ष” कहते हैं, यानी मनचाहा वरदान देने वाला पेड़। इस तरह का मन होने पर, आप जो भी माँगते हैं, वह साकार हो जाता है। आपको बस इतना करना है कि मन को उस हद तक विकसित करें, जहाँ यह एक कल्पवृक्ष बन जाए, न कि पागलपन का स्रोत। जो मन अपनी चुनी हुई हर चीज़ को साकार कर सकता है, योग में उसे “संयुक्ति” की अवस्था कहते हैं। यह समभाव से पैदा होने वाली निपुणता है।

दिल और दिमाग का समीकरण

        लोग अकसर कहते हैं कि उनका दिमाग उन्हें एक direction में ले जाता है और दिल दूसरी direction में। योग में जो बुनियादी तथ्य हम स्थापित करते हैं, वह है : आप व्यक्ति के तौर पर “एक” इंसान हैं, अकेले संपूर्ण प्राणी। दिमाग और दिल अलग-अलग नहीं हैं; आप “संपूर्ण एक” हैं।
        चलिए, सबसे पहले यह समझते हैं कि किन चीज़ों को “दिमाग” और “दिल” कहा जा रहा है। आम तौर पर आप अपने विचारों को दिमाग से जोड़ते हैं और अपनी भावनाओं को दिल से। मैं चाहता हूँ कि आप इस बात पर सावधानी से और पूरी ईमानदारी से ग़ौर करें। आपको एहसास होगा कि आप जैसा सोचते हैं, वैसा ही महसूस करते हैं। लेकिन यह भी सच है कि आप जिस तरह से महसूस करते हैं, उसी तरह से सोचते हैं। इसी कारण से योग में विचार और भावना को एक ही चीज़ के हिस्से की तरह शामिल किया जाता है। इसे “मनोमयकोश” या मानसिक शरीर कहते हैं।

ज्ञान-मार्ग बनाम भक्ति-मार्ग

        यौगिक संस्कृति में “शि-व” शब्द के दो पहलू हैं। एक स्तर पर, इस शब्द का मतलब है, “वह जो नहीं है।” हर चीज़ जो सृष्टि में मौजूद है, वह “वह जो नहीं है” से आई है। अगर आप आसमान की तरफ़ देखते हैं, तो आप तमाम खगोलीय पिंडों (Celestial bodies) और तारों को पाएँगे, लेकिन उनके बावजूद वहाँ अथाह खालीपन की मौजूदगी सबसे विशाल है। अभी इसी खालीपन, इसी शून्यता की गोद में ही इस संपूर्ण सृष्टि का नृत्य हो रहा है। इस शून्यता को ही, जो सृष्टि का आधार है, “शि-व” कहते हैं। यौगिक संस्कृति में शिव का दूसरा पहलू आदियोगी का, यानी पहले योगी का है। उन्होंने ही योग के अविश्वसनीय विज्ञान (Incredible science) के द्वार मानवता के लिए खोले हैं। यौगिक संस्कृति, शिव के हर चीज़ के आधार होने से लेकर शिव के पहले योगी होने तक, अखंड तरीके से बढ़ती गई है।
        अगर आप पहाड़ की चोटी को अनुभव करना चाहते हैं, तो आप या तो स्वयं को उस ऊँचाई तक ले जाएँ, या फिर बस उसके प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हो जाएँ। यही दो बुनियादी तरीके हैं। वरना कोई मिलन संभव नहीं। ज्ञान के माध्यम से आप “वह जो नहीं है” से आमने-सामने मिलने की आकांक्षा रखते हैं। जबकि भक्ति के माध्यम से आप अपने सीमित और कठोर व्यक्तित्व को मिटाने का प्रयास करते हैं और एक अधिक लचीली अवस्था की ओर बढ़ते हैं, जहाँ आप अपनी पसंद और नापसंद के ढाँचे से परे के आयाम तक पहुँचते हैं। ये पसंद और नापसंद ही आपके व्यक्तित्व के आधार हैं। मनुष्य की इच्छाओं की अंतहीन प्रकृति जीवन की असीम प्रकृति के लिए चाहत की अभिव्यक्ति है। “असीम” और “शून्य” बस एक ही वास्तविकता की सकारात्मक और नकारात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं।
        भक्ति का मतलब है कि आपने पसंद और नापसंद, लगाव और विरक्ति (Detachment) के द्वैत को खत्म कर दिया है। इसका मतलब है कि अब आपके लिए “ठीक है” और “ठीक नहीं है” का कोई अस्तित्व नहीं रहा; आपके लिए हर चीज़ ठीक है। जब एक भक्त कहता है, “ईश्वर हर जगह है” या “हर चीज़ ईश्वर है,” तो वास्तव में वह कह रहा है, “हर चीज़ ठीक है।” इस तरह वह स्वीकार-भाव की गहन अवस्था में पहुँच जाता है, जो रूपांतरणकारी और मुक्तिदायी होती है। भक्ति सब-कुछ अपने साथ समेट लेने वाली, सब-कुछ शामिल कर लेने वाली होती है; यह भेदभाव नहीं करती। परम सत्य की प्रकृति भी यही है।

प्रेम-मंत्र

        प्रेम के बारे में आपका क्या कहना है? क्या बिना शर्त प्रेम जैसी कोई चीज़ होती है? क्या यह दो इंसानों के बीच सचमुच हो सकता है? ऐसे सवाल अकसर पूछे जाते हैं।
        एक दिन शंकरन पिल्लै एक पार्क में गए। उन्होंने पत्थर की एक बेंच पर एक सुंदर युवती को बैठे देखा। वे भी उसी बेंच पर बैठ गए। कुछ मिनटों के बाद वे उसके पास आ गए। वह दूर खिसक गई। उन्होंने कुछ मिनट इंतजार किया, और फिर उस युवती के और पास आ गए। वह फिर से दूर खिसक गई। जब उन्होंने फिर ऐसा किया, तो वह बेंच के बिलकुल किनारे पर आ गई। वे उसके एकदम करीब आ गए और अपनी बाँह उसके गले में डाल दी, युवती ने उनका हाथ धकेल दिया। तब वे घुटनों के बल बैठ गए, एक फूल तोड़ा और उसे युवती को देते हुए कहा, ‘आई लव यू। मैं तुमसे इतना प्यार करता हूँ, जितना मैंने अपने जीवन में आज तक कभी किसी से नहीं किया।’ सूरज डूब रहा था। उनके हाथ में फूल था। उन्होंने उसे प्रेम-याचना की दृष्टि से देखा। सबसे बढ़कर, माहौल बिलकुल सही था। वह पिघल गई। उसके बाद प्रकृति ने अपना रंग दिखाया और दोनों एक-दूसरे के साथ घुल-मिल गए। शाम रात में गहरा गई। शंकरन पिल्लै अचानक उठ खड़े हुए और बोले, ‘रात के आठ बज गए हैं। मुझे जाना होगा।’ वह बोली, ‘क्या? अभी? तुमने तो अभी कहा था कि तुम मुझसे इतना प्यार करते हो, जितना किसी और से नहीं करते!’ ‘हाँ, हाँ, बिलकुल, लेकिन मेरी पत्नी इंतजार कर रही होगी।’
        आम तौर पर हम उन दायरों में रिश्ते बनाते हैं, जो हमारे लिए आरामदेह और फायदेमंद होते हैं। लोगों को शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक, आर्थिक या सामाजिक ज़रूरतें पूरी करनी होती हैं। इन ज़रूरतों को पूरा करने का सबसे अच्छा तरीका है लोगों से यह कहना, “आई लव यू” यह तथाकथित प्रेम का एक मंत्र बन गया है : “खुल जा सिमसिम।” इसे बोलकर आप जो चाहें, पा सकते हैं। प्रेम एक गुण है; यह ऐसी चीज़ नहीं है जिसका किसी दूसरे के साथ कोई लेना-देना हो।
        शर्तों पर प्रेम और शर्त-रहित प्रेम जैसी कोई चीज़ नहीं होती : शर्तें होती हैं या प्रेम होता है। जिस पल कोई शर्त आ जाती है, उसी पल यह बस लेन-देन बन जाता है। हो सकता है कि यह सुविधाजनक लेन-देन हो, हो सकता है कि यह एक अच्छा इंतजाम हो, लेकिन वह आपको तृप्ति नहीं देगा या वह आपको एक दूसरे आयाम में नहीं ले जाएगा। वह बस सुविधा के लिए होता है। प्रेम का सुविधाजनक होना ज़रूरी नहीं है; ज़्यादातर समय यह सुविधाजनक नहीं होता। इसकी कीमत जीवन से चुकानी पड़ती है। आपको इसमें खुद को दे देना होता है।
 अगर आपको प्रेम में होना है, तो आपको “होना” नहीं चाहिए। अंग्रेजी की कहावत “फॉलिंग इन लव” बहुत सटीक है। आप प्रेम में चढ़ते नहीं हैं, आप प्रेम में खड़े नहीं होते हैं, आप प्रेम में उड़ते नहीं हैं, आप प्रेम में गिरते (फॉलिंग) हैं। आपका कुछ-न-कुछ गिरना चाहिए या पिघल जाना चाहिए, ताकि दूसरे के लिए जगह बन सके। लेन-देन और प्रेम-संबंध में अंतर होता है। ज़रूरी नहीं कि प्रेम-संबंध किसी खास इंसान से हो; आप जीवन के साथ ही शानदार प्रेम-संबंध रख सकते हैं।

॥साधना॥

प्रेम कभी दो लोगों के बीच नहीं होता। यह आपके भीतर होता है, और आपकी आंतरिकता को किसी दूसरे व्यक्ति या चीज़ का गु़लाम होने की ज़रूरत नहीं है। इसे पंद्रह मिनट के लिए आजमाकर देखिए : जाकर किसी ऐसी चीज़ के साथ बैठिए, जिसके आपके लिए अभी कोई मायने नहीं हैं – यह एक पेड़ हो सकता है, या एक पत्थर, या एक कीड़ा। कुछ दिनों तक इसे लगातार कीजिए। कुछ दिनों बाद, आप पाएँगे कि आप उसे भी उतने ही प्रेम से देख सकते हैं, जितना कि आप अपने पति या पत्नी या माँ या बच्चे को देखते हैं। शायद उस कीड़े को इसका पता न हो, पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर आप हर चीज़ को प्रेम से देख सकते हैं, तो आपके अनुभव में सारी दुनिया खूबसूरत हो जाती है।

भक्ति : एक अनूठा आयाम

अधिकतर लोग सावधानी से जीते हैं। वे अपने प्रेम और खुशी को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में तौलकर बाहर लाते हैं, क्योंकि वे डरते हैं कि कहीं ये खत्म न हो जाएँ। जीवन जीने का सबसे उदार तरीका है – अपने जीवन को सारी सीमाओं से परे चरम पर जीना, ताकि वह सारी दुनिया के सामने मिसाल बन जाए। अगर आप इतने कंजूस हैं कि आप पूरी तरह न तो प्रेम कर सकते हैं, न खुलकर हँस सकते हैं और न ही भरपूर जी सकते हैं, तो आप अव्वल दर्जे के कंजूस-मक्खीचूस हैं! भक्ति का मतलब है कि आप कंजूस नहीं हैं – आप जूस से भरे हैं! भक्त वह व्यक्ति है, जो जीवन को जितना हो सके, अधिक से अधिक अनुभव करना और खोजना चाहता है।
        भक्ति कोई क्रियाकलाप (Activity) नहीं है; यह किसी एक या दूसरी चीज़ के प्रति नहीं होती; भक्ति किसके प्रति है, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। बस इतना ही है कि भक्ति में आप अपने भीतर सारे विरोध विसर्जित कर देते हैं, ताकि चैतन्य साँसों की तरह आसानी से बह सके। ईश्वर कोई ऐसा नहीं है जो वहाँ ऊपर बैठा हो; वह आपके जीवन में हर पल मौजूद एक जीवंत शक्ति है। भक्ति आपको उसके प्रति जागरूक बनाती है।

रहस्य को अंगीकार कीजिए

         यह सिर्फ एक बचकानी बुद्धि ही है, जो चीज़ों का विश्लेषण (Analyse) करती है और निष्कर्ष पर पहुँच जाती है। अगर आपकी बुद्धि काफी विकसित और परिपक्व है, तब आपको एहसास होता है कि आप जितना ज़्यादा विश्लेषण (Analyse) करते हैं, किसी निष्कर्ष से आप उतने ही ज़्यादा दूर होते हैं।
        अगर आप जीवन के किसी भी पहलू में गहराई में जाते हैं, तो आप किसी भी नतीजे से दूर, और दूर चले जाएँगे। जीवन पहले से भी अधिक रहस्यमय हो जाता है। आप जीवन को जितना ज़्यादा खोदते हैं, आप पाते हैं कि यह अंतहीन और अथाह प्रक्रिया है। आप उसे समझ नहीं सकते, क्योंकि आप स्वयं ही जीवन हैं। जब आपको अपने अनुभव में एहसास होता है कि हर परमाणु, रेत का हर कण, हर कंकड़, और सबसे छोटे से लेकर सबसे बड़े तक जीवन का हर अंश, अथाह है, तो आप स्वाभाविक रूप से हर चीज़ के आगे परम भक्तिभाव से नतमस्तक हो जाएँगे। किसी भी गहन विश्लेषण के जरिये जीवन को समझने के बजाय अगर आप बस यूँ ही यहाँ बैठकर साँस लेते हैं, तो आप जीवन को बेहतर जान जाएँगे।

॥साधना॥

        जब आप किसी चीज़ को खुद से बहुत विशाल जैसा अनुभव करते हैं, तो स्वाभाविक रूप से आप उसके आगे झुक जाएँगे। अगर आप भक्त बनना चाहते हैं, तो अपने जीवन में जागते हुए क्षणों के दौरान, हर घंटे में कम से कम एक बार, आप हाथ जोड़ें और किसी चीज़ के सामने झुकें। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह कौन है या क्या है। यह ज़रूरी है कि उसमें चुनाव न करें। आप जो कुछ भी देखें, बस अपना सिर झुकाएँ – चाहे वह एक पेड़ हो, पहाड़ हो, कुत्ता हो, बिल्ली हो, या कुछ भी। इसमें शरीर की हरकत ज़रूरी नहीं है; यह एक आंतरिक कार्य हो सकता है। बस ऐसा दिनभर कीजिए, हर घंटे पर। कोशिश कीजिए कि यह हर मिनट हो सके। जब ऐसा हर मिनट पर हो, तब इसके लिए अपने हाथों और शरीर का इस्तेमाल करना ज़रूरी नहीं है। आप बस अपने मन में कीजिए। एक बार जब यह आपके होने का तरीका बन जाता है, तब आप भक्त होते हैं।

ऊर्जा

 क्रिया-योग की शरण लें

        अभी मनुष्य शरीर और मन के साथ तमाम तरीकों से पहचान बना लेता है। लेकिन बुनियादी तौर पर, आप जिसे “मैं” कहते हैं, वह ऊर्जा की थोड़ी-सी मात्रा है। आधुनिक विज्ञान ने बिना किसी संदेह के यह सिद्ध कर दिया है कि संपूर्ण अस्तित्व एक ही ऊर्जा से बना है, जो करोड़ों अलग-अलग आश्चर्यजनक तरीकों से स्वयं को जाहिर कर रही है। जब आइंस्टीन ने E=mc2 का सूत्र दिया, तो आसान शब्दों में, वे यह कह रहे थे कि अस्तित्व में हर चीज़ को एक ही ऊर्जा की तरह देखा जा सकता है। सारे धर्म जब कहते हैं कि “ईश्वर हर जगह है”, तो वे थोड़े अलग तरीके से उसी चीज़ का दावा कर रहे हैं।
        योग का अर्थ शारीरिक और मानसिक प्रक्रिया का अलग-अलग अनुभव करना है, स्वयं के आधार की तरह नहीं, बल्कि उस तरह से, जो आपके द्वारा बनाया गया है। जब आप इन दो उपकरणों, शरीर और मन को सचेतन रूप से सँभालते हैं, तब जीवन का आपका अनुभव सौ प्रतिशत आपका अपना बनाया होता है। आपको बस इतना करना है कि अपने और हर उस चीज़ के बीच एक दूरी पैदा करनी है, जो आपने बाहर से इकट्ठी की है। आपने इस जीवन में जो कुछ भी इकट्ठा किया है, वह आप जहाँ भी जाएँ, आपके साथ रहता है। यह आपसे बहुत गहराई से जुड़ा हुआ है, और परिणामस्वरूप, एक अचेतन स्तर पर आपका भी इससे लगाव है। यह एक बोझ बन जाता है, क्योंकि आप नहीं जानते कि इसे कब नीचे रख देना है और कब इसे उठालेना है। इसे एक बोरे की तरह आप हर समय अपने कंधों पर ढोते हैं। लेकिन इसे नीचे रखना आपके लिए संभव है। यह फिर भी आपका साथी होगा, लेकिन कम से कम यह उतना बोझिल नहीं होगा! जो आपने इकट्ठा किया है, उसके और खुद के बीच कुछ दूरी बनाना निश्चय ही संभव है। आप जब चाहें इसका इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन आपको इससे अपनी पहचान जोड़ना आवश्यक नहीं है। अगर आप यह दूरी कायम नहीं रख सकते, तो जीवन के बारे में आपकी पूरी समझ अस्पष्ट रहेगी। आपकी याददाश्त और आपकी कल्पना – जिसमें आपकी सारी धारणाएँ, विश्वास और भावनाएँ भी शामिल हैं – मनोवैज्ञानिक दायरे से संबंध रखती हैं। जब मनोवैज्ञानिक और अस्तित्वगत के बीच स्पष्ट दूरी होती है, केवल तभी जीवन का स्वाद लिया जा सकता है और उससे आगे जाया जा सकता है।

कर्म का गोरखधंधा

        किसी परिस्थिति में जो किया जाना चाहिए, यदि आप प्रसन्नतापूर्वक कर सकते हैं, तो इसे आज़ादी कहेंगे। लेकिन जो आपको पसंद है, स्वयं को सिर्फ वहीं तक सीमित कर देना विवशतापूर्ण जीने का तरीका है। यह विवशता “कर्म” की एक चाल है। यह प्राचीन शब्द दुनिया में लोकप्रिय इस्तेमाल से क्षत-विक्षत हो गया है।
कर्म एक पुराने सॉफ्टवेयर की तरह है, जिसे आपने स्वयं के लिए अनजाने में लिखा है। आप जिस प्रकार के कार्य करते हैं, उसी के अनुसार आप अपना सॉफ्टवेयर लिखते हैं। एक बार जब आप किसी खास तरह का सॉफ्टवेयर लिख लेते हैं, तो आपका पूरा सिस्टम उसी के अनुसार कार्य करता है।

॥साधना॥

        आपकी सारी सांसारिक उपलब्धियाँ सिर्फ उन लोगों की तुलना में कीमती हैं, जिनके पास वे नहीं हैं। जब आपको एहसास होता है कि यह आनंद किसी दूसरे के वंचित होने से पैदा होता है, तो क्या आप इसे वाकई खुशी कह सकते हैं? क्या यह एक तरह की बीमारी नहीं है? यही समय है कि हर कोई इस पर ग़ौर करे। अगर आप इस धरती पर अकेले हों, तो तब आप अपने लिए क्या चाहेंगे? स्वयं से यह प्रश्न कीजिए और देखिए कि यह आपको कहाँ ले जाता है? इसे आजमाकर देखिए। पाँच मिनट के लिए अकेले बैठिए और यह देखिए कि आपका जीवन किस तरह का होगा, अगर आप इस दुनिया में पूरी तरह से अकेले हों। अगर आपके पास खुद से तुलना करने के लिए कोई या कुछ भी नहीं है, तो आप सचमुच किसकी लालसा करेंगे? अगर कोई बाहरी सराहना या आलोचना नहीं है, तो आपके लिए वाकई किस चीज़ के मायने होंगे? अगर आप यह हर दिन करते हैं, तो आप उस जमा किए हुए कर्म के झमेले के साथ संगति में होने के बजाय, जो आप मानते हैं कि आप हैं, उस जीवन की लालसा के साथ तालमेल में आ जाएँगे, जो जीवन आप असल में हैं।

क्रिया का मार्ग

        बुनियादी तौर पर, “क्रिया” का मतलब है “आंतरिक कार्य।” आंतरिक कार्य उसे कहते हैं, जिसमें शरीर या मन या ऊर्जा के भौतिक आयाम शामिल नहीं होते। शरीर और मन आपके हैं, लेकिन फिर भी आपसे बाहर हैं। आपने इन दोनों को बाहर से इकट्ठा किया है : शरीर भोजन का संग्रह (collection) है और मन विचारों का संग्रह। यहाँ तक कि आपके ऊर्जा-शरीर पर अंकित छाप पाँच इंद्रियों से प्राप्त जानकारी का संग्रह है। जब आपमें अपनी ऊर्जा के अभौतिक पहलू से कार्य करने की योग्यता आ जाती है, तब वह कार्य “क्रिया” कहलाता है। यह सब थोड़ा गूढ़ लग सकता है, लेकिन अगर आपको किसी ऐसे व्यक्ति से दीक्षा मिली है, जिसे ऊर्जा के क्षेत्र में दक्षता प्राप्त है, तो आपके लिए क्रिया का अभ्यास करना संभव होगा।
        अगर आपके क्रिया-कलाप बाहरी अभिव्यक्ति पाते हैं, जिसमें शरीर, मन और ऊर्जा का भौतिक आयाम शामिल हो, तो वह कर्म होगा। लेकिन अगर आप भीतर की ओर मुड़कर भौतिक के सारे आयामों से परे कोई कार्य करते हैं, तो वह क्रिया होता है। कर्म आपको बाँधने की प्रक्रिया है। क्रिया आपको मुक्त करने की प्रक्रिया है। योग का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू हमेशा ऊर्जा के भौतिक आयामों से परे कार्य करना होता है। भौतिकता के चार आयामों में से आप शरीर के क्रिया-कलापों के प्रति सबसे अधिक सचेतन हैं, मानसिक क्रिया-कलापों के प्रति काफी कम, और ऊर्जा के प्रति न के बराबर। जिस पल आप अपनी जीवन-ऊर्जा के अभौतिक पहलू से कार्य करना सीख लेते हैं, तब आप अचानक अपने भीतर और बाहर आज़ादी के एक नए स्तर पर पहुँच जाते हैं।

॥साधना॥

असल में हर व्यक्ति में कर्मों की संरचना एक चक्रीय तरीके से काम करती है। अगर आप बारीकी से ग़ौर करें, तो पाएँगे कि दिनभर में वही चक्र बार-बार हो रहे हैं। अगर आप बहुत ध्यान देने वाले व्यक्ति हैं, तो आप देखेंगे कि हर चालीस मिनट में आप एक शारीरिक चक्र से गुजरते हैं। एक बार जब आपको इसका एहसास हो जाता है, तब ज़रूरी एकाग्रता और जागरूकता के साथ आप उस चक्र पर सवार हो सकते हैं और उन चक्रों द्वारा निर्धारित सीमाओं से परे जाने की तरफ़ बढ़ सकते हैं। इसलिए हर चालीस मिनट पर जीवन आपको एक अवसर प्रदान करता है – जागरूक बनने का अवसर। हर चालीस से अड़तीस मिनट पर, दाहिने और बाएँ नथुनों से आने-जाने वाली साँस की प्रबलता में भी बदलाव आता है। आपकी साँस कुछ देर तक दाहिने (Right) नथुने में प्रबल रहती है और फिर बाएँ (Left) नथुने में। आप इस बारे में जागरूक हो जाइए, ताकि आप यह जान जाएँ कि आपके भीतर कम से कम कोई चीज़ लगातार बदल रही है। इस जागरूकता को और अधिक बढ़ाया जा सकता है और आप अपने शरीर पर सूर्य और चंद्रमा के प्रभाव के प्रति भी जागरूक हो सकते हैं। अगर आप चंद्र और सौर चक्रों के साथ अपने शरीर को संतुलन में ले आते हैं, तो आपका शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य सुनिश्चित है।

ऊर्जा का भँवर-जाल

        योग-पद्धति हमें मनुष्य के ऊर्जा-शरीर की संरचना का एक व्यापक और विस्तृत दृष्टिकोण (Wide view) प्रदान करती है। ऊर्जा-सिस्टम में बहत्तर हज़ार नाड़ियाँ या “चैनल” होते हैं। ऊर्जा या प्राण इन्हीं नाड़ियों से होकर प्रवाहित होता है। ये बहत्तर हज़ार नाड़ियाँ तीन बुनियादी नाड़ियों से निकलती हैं : दाहिनी नाड़ी को पिंगला कहते हैं, बाईं नाड़ी को इड़ा, और बीच की नाड़ी को सुषुम्ना। ये तीन नाड़ियाँ ऊर्जा-प्रणाली का आधार होती हैं।
        पिंगला पुरुष-प्रकृति का प्रतीक है और इड़ा नारी-प्रकृति का। कोई व्यक्ति पुरुष है या स्त्री, उसका इन गुणों से कोई लेना-देना नहीं है। आप एक पुरुष हो सकते हैं, फिर भी आपमें इड़ा ज़्यादा प्रबल हो सकती है; आप एक स्त्री हो सकती हैं, फिर भी पिंगला प्रबल हो सकती है। पिंगला और इड़ा को सूर्य और चंद्रमा की तरह भी दर्शाया जाता है – सूर्य पुरुष-प्रधान गुणों का और चंद्रमा नारी-सुलभ गुणों का प्रतीक है। सूर्य प्रचंड है और अपनी किरणें चारों ओर बिखेरता है। चंद्रमा किरणों को ग्रहण करता है और परावर्तित करता है। चंद्रमा के बढ़ने-घटने के चक्र से औरतों के शरीर का चक्र जुड़ा हुआ है। आपके दिमाग के स्तर पर, पिंगला तार्किक आयाम का प्रतीक है; जबकि इड़ा सहजज्ञान आयाम का। यह द्वैत (Duality) मनुष्य जीवन के भौतिक दायरे का आधार है। व्यक्ति तभी पूर्ण होता है, जब पुरुष-प्रधान पक्ष और नारी-सुलभ पक्ष दोनों पूरी क्षमता से काम करते हैं और उचित संतुलन में होते हैं।
        सुषुम्ना, जो केंद्रीय नाड़ी है, आपके शरीर-विज्ञान का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिससे अधिकतर लोग आम तौर पर अनजान होते हैं। यद्यपि सुषुम्ना का बहत्तर हजार नाड़ियों से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन फिर भी यह पूरे सिस्टम की धुरी (axis) का काम करती है। एक बार जब ऊर्जाएँ आपकी सुषुम्ना में प्रवेश कर जाती हैं, तब आपमें एक तरह का संतुलन बना रहता है, चाहे आपके आसपास कुछ भी क्यों न हो रहा हो। अभी, हो सकता है कि आप काफी संतुलित हों, लेकिन अगर बाहरी परिस्थिति चुनौतीपूर्ण है, तो आप भी परेशान हो जाएँगे। ऊर्जाओं के सुषुम्ना में प्रवेश कर जाने पर, आप अपने भीतर कैसे हैं, यह बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करता, क्योंकि सुषुम्ना बहत्तर हजार नाड़ियों से जुड़ी नहीं है।
        आजकल चक्रों की बहुत बातें हो रही हैं। “चक्र” का अर्थ है पहिया, और योग-पद्धति में इसका बहुत महत्त्व और खास मायने हैं। शरीर में कुल 114 चक्र हैं। दो शरीर के बाहर हैं और 112 शरीर के अंदर। इन 112 चक्रों में से 7 मुख्य चक्र हैं। अधिकतर लोगों के लिए इनमें से केवल 3 सक्रिय रहते हैं; बाकी या तो मंद या कम सक्रिय रहते हैं। आपको अपना सांसारिक जीवन जीने के लिए सभी 114 चक्रों को सक्रिय नहीं करना होता। बस कुछ ही चक्रों की सहायता से आप एक काफी संपूर्ण जीवन जी सकते हैं। अगर आपको पूरे 114 चक्र सक्रिय करने हों, तो आपको शरीर का बिलकुल आभास भी नहीं रहेगा। योग का उद्देश्य आपके ऊर्जा-सिस्टम को इस तरह से सक्रिय करना है कि आपकी शारीरिक चेतना लगातार नीची होती रहे, ताकि आप यहाँ बैठकर शरीर में रहें, लेकिन खुद शरीर ना रहें।

॥साधना॥

        खुली आँखों से, अपनी भौंहों के बीच के स्थान से छह से नौ इंच की दूरी पर बारह से अड़तालीस मिनट तक अपना ध्यान केंद्रित करने से आपको अपने अलग-अलग चक्रों की प्रकृति और संरचना का एहसास हो सकता है। यह आपके ध्यान के स्तर और उसकी अवधि पर निर्भर करेगा। इसका बोध तनावपूर्ण बाहरी परिस्थितियों के कारण होने वाले चक्रों की अनियमित हलचल को स्थिर करने में सहायता कर सकता है। क्रिया-योग के एक बहुत परिष्कृत प्रकार का यह बस एक पहलू है, जो आपको अपने आंतरिक आकाशीय आयाम तक पहुँच प्रदान करता है।

प्रतिष्ठा-विज्ञान

        “प्रतिष्ठा” शब्द अकसर थोड़ी लापरवाही से इस्तेमाल होता है। अधिकांश लोगों के लिए इसका मतलब विस्तृत (Detailed) रीति-रस्मों को संपन्न करना है, जो हमारे जीवन को बहुत सुंदरता और कलात्मकता प्रदान करती हैं, लेकिन इसकी कोई असली उपयोगिता नहीं है। अधिकतर लोग मानते हैं कि यह बस बकवास है, जिसका मकसद आध्यात्मिक प्रक्रिया को उलझाना और अधिकांश भोले-भाले डरपोक लोगों का शोषण करना है। यही समय है कि हम इस सतही समझ को छोड़ें और गहराई में देखें। अगर आप मिट्टी को भोजन में रूपांतरित करते हैं, तो हम उसे कृषि कहते हैं। अगर आप भोजन को मांस और हड्डी में बदलते हैं, तो हम उसे पाचन कहते हैं। अगर आप मांस को फिर से मिट्टी बना देते हैं, तो हम उसे दाह-संस्कार कहते हैं। अगर आप इस मांस या किसी पत्थर या फिर किसी खाली स्थान को ईश्वरीय संभावना में बदल देते हैं, तो उसे प्रतिष्ठा कहते हैं।
        जब दुनिया में लोग बहुत भटके हुए हों, और खुद को एक जीवंत मंदिर बनाने को अनिच्छुक हों, तब पत्थर के मंदिर बनाना आवश्यक हो जाता है। मंदिर बनाने का बुनियादी उद्देश्य उन अधिकांश लोगों को फायदा पहुँचाना है, जिनके जीवन में कोई आध्यात्मिक अभ्यास या साधना नहीं है। अगर कोई इस तरह के प्रतिष्ठित स्थान पर साधना कर सकता है, तो यह दोगुना फायदेमंद होता है। खासकर उनके लिए बाहरी मंदिर अनमोल होता है, जो अपने शरीर को मंदिर बनाना नहीं जानते।
       प्रतिष्ठा अनेक तरीकों से की जाती है, लेकिन आम तौर पर इसके लिए विधि-विधान, मंत्र, ध्वनियों, रूपों और दूसरी कई चीज़ों का इस्तेमाल होता है। इसे लगातार देखरेख की ज़रूरत होती है। मंदिर में रीति-रस्म आपके लिए नहीं किए जाते; वे वहाँ पर स्थापित देवता या ऊर्जा-रूप को जीवंत रखने के लिए होते हैं।

॥साधना॥

        अगर आप पाँच तत्त्वों को एक खास सरल संरचना में इस्तेमाल करना सीख लेते हैं, तो आप अपने लिए एक बहुत लाभदायक ऊर्जा-क्षेत्र बना सकते हैं। यहाँ पर एक आसान विधि दी गई है, जिसे आप आजमा सकते हैं। नीचे दी गई आकृति को चावल या किसी दूसरे अन्न के आटे से बनाइए। इसके केंद्र में पानी से भरी थाली में एक घी का दीया रखिए। पानी में एक फूल रखिए। आपने अब पानी, अग्नि और वायु से एक ज्यामितीय आकृति बना ली है। पानी में रखा फूल धरती को दर्शाता है। आकाश या ईथर निसंदेह हमेशा उपस्थित रहता है।
        इस आसान प्रक्रिया को हर शाम को कीजिए। आप पाएँगे कि आपके कमरे की ऊर्जा एक सूक्ष्म किंतु शक्तिशाली तरीके से बदल गई है। इस तरीके से, आप अपने घर या ऑफिस को हर दिन अनोखे तरीके से सशक्त कर सकते हैं।

दिव्य-ऊर्जा से सराबोर पहाड़

       अधिकतर योगियों और दिव्यदर्शियों के लिए समस्या यह रही है कि वे अपने बोध का फल अपने आसपास के लोगों के साथ कभी बाँट नहीं सके। ऐसे व्यक्ति को खोजना आसान नहीं है, जो उसे ग्रहण करने के योग्य हो, जो चीज़ आप जानते हैं। अगर आपको एक भी व्यक्ति मिल जाता है, तो आप भाग्यशाली हैं। तो, अधिकतर आध्यात्मिक गुरुओं ने अपने ज्ञान को कुछ खास जगहों पर ही जमा किया है। ये निर्जन स्थान थे, लेकिन पूरी तरह से दुर्गम नहीं थे। उन्होंने अकसर पहाड़ की चोटियाँ चुनीं, क्योंकि ऐसी जगहों पर लोगों का आना-जाना और व्यवधान कम होता है। भारत में इस तरह के कई शानदार स्थान हैं। कैलाश पर्वत (पश्चिमी तिब्बत में एक पर्वत की चोटी, जिसे अथाह शक्तिशाली और प्राचीनतम पवित्र स्थान माना जाता है) एक ऐसा स्थान है, जहाँ बहुत लंबे समय से ज्ञान का सर्वाधिक भंडार ऊर्जा के रूप में संचित है। कैलाश इस धरती पर रहस्यमय ज्ञान का महानतम पुस्तकालय है। पूर्व के लगभग सभी धर्म उसे बहुत पवित्र मानते हैं। हिंदुओं में पारंपरिक तौर पर माना जाता है कि यह परमेश्वर शिव और उनकी पत्नी पार्वती का निवास है। बौद्ध लोग उसे इसलिए पवित्र मानते हैं, क्योंकि माना जाता है कि उनके तीन महान बुद्ध वहाँ रहते हैं। जैनियों का मानना है कि उनके पहले गुरु या तीर्थंकर ने वहीं पर मुक्ति प्राप्त की थी। तिब्बत का मूल धर्म बॉन भी उसे बहुत पवित्र स्थान मानता है।
        केदारनाथ हिमालय पर बस एक छोटा-सा मंदिर है। वहाँ कोई देवी-देवता की मूर्ति नहीं है। यह बस एक उभरी हुई चट्टान जैसा है, लेकिन यह दुनिया के सबसे शक्तिशाली स्थानों में से एक है! अगर आप अपनी ग्रहणशीलता बढ़ाने का प्रयास करते हैं और फिर उस तरह की जगह पर जाते हैं, तो वह ऊर्जा आपको बस झकझोर देगी। पूर्व में ऐसे कई स्थान हैं, लेकिन हिमालय ने सबसे ज़्यादा लोगों को आकर्षित किया है।
        अगर कोई अपने शरीर को बिना कोई नुकसान पहुँचाए उसे त्याग सकता है, तो यह इस बात का संकेत है कि जीवन-प्रक्रिया पर उसे पूर्ण सिद्धि प्राप्त है। भारतीय परंपरा में इसे आम तौर पर महासमाधि कहते हैं।

समाधि और आत्मज्ञान

       यह समाधि वास्तव में है क्या? समाधि समभाव की एक खास अवस्था है, जिसमें बुद्धि अंतर करने के अपने सामान्य तरीके से परे चली जाती है। इसके फलस्वरूप, समाधि भौतिक शरीर पर किसी इंसान की पकड़ को इस तरह ढीला करती है, कि आपके और आपके शरीर के बीच एक दूरी बन जाती है।
        किसी के भी आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर समाधि एक महत्त्वपूर्ण कदम है, लेकिन फिर भी, यह अंतिम लक्ष्य नहीं होती। किसी खास तरह की समाधि का अनुभव कर लेने का मतलब यह नहीं है कि आप अस्तित्व के चक्र से मुक्त हो गए। यह बस अनुभव का एक नया स्तर होता है। यह कुछ ऐसा है कि जब आप बच्चे थे, तब आपने जीवन को एक खास तरह से अनुभव किया था। जब आप वयस्क हो जाते हैं, तो आपके अनुभव का स्तर अलग हो जाता है। आप अपने जीवन में अलग-अलग मुकाम पर उन्हीं चीज़ों को बिलकुल अलग तरीके से अनुभव करते हैं। समाधियाँ बस उसी तरह होती हैं।

तंत्र : रूपांतरण की तकनीक

        मान लीजिए, मैं भारत में हूँ और आप अमेरिका में। मैं आपके पास फूल भेजना चाहता हूँ, लेकिन मैं कोलंबस की तरह यात्रा नहीं करना चाहता। अगर मैं उस फूल को अचानक आपकी गोद में पहुँचा देता हूँ, तो यह गुह्य-विद्या होगी। इसमें कुछ भी आध्यात्मिक नहीं है; यह बस जीवन के भौतिक आयाम को सँभालने का एक और तरीका है।
        भारत में, हमारे पास कई जटिल गुह्य-प्रक्रियाएँ हैं। ऐसे कई लोग हैं, जो बस एक फोटो देखकर उस व्यक्ति के जीवन को बना या बिगाड़ सकते हैं। वे यह भी सुनिश्चित कर सकते हैं कि उस व्यक्ति को कोई ऐसी बीमारी पकड़ ले, जो आम तौर पर इतने कम समय में शरीर में नहीं हो सकती। ये गुह्य-विद्या का अभ्यास करने वाले सेहत को सुधार भी सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से उनमें से ज़्यादातर लोग अपनी क्षमता का इस्तेमाल बुरा काम करने के लिए ही करते हैं, क्योंकि इन नकारात्मक क्षमताओं की बाजार में अधिक माँग है। बहरहाल, चाहे इसे सेहत बिगाड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाए या सेहत सुधारने के लिए – मुद्दा यह नहीं है – गुह्य-विद्या का इस्तेमाल निजी लक्ष्य-प्राप्ति के लिए अनुचित है।

आनंद

 एक शुरुआत

        अधिकतर लोगों के जीवन में आनंद कभी-कभार आने वाले मेहमान की तरह होता है। इस किताब (book) का मकसद जीवन भर के लिए उसे आपका साथी बना देना है। आनंद कोई ऐसा आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं है, जो पहुँच से बाहर हो। आपके जीवन का कोई भी पहलू जादुई व शानदार तरीके से अभिव्यक्त हो, इसके लिए आनंद का वातावरण होना बहुत ज़रूरी है। अगर आनंद आपके जीवन में नहीं है, तो जीवन की सबसे सुखदायी गतिविधियाँ भी बोझिल बन जाती हैं। आप अपने इर्द-गिर्द जीवन की समस्याओं को अपनी काबिलियत से सँभाल सकते हैं। लेकिन एक बार जब आनंद आपका स्थायी साथी बन जाता है, तो आप खुद अपने जीवन में एक समस्या नहीं रह जाते। इसके बाद जीवन लगातार जाहिर होते जश्न और खोज की एक यात्रा बन जाता है।
        हमारे पास आज जो सहूलियतें और सुख-सुविधाएँ हैं, वे किसी भी पिछली पीढ़ी से बहुत अधिक हैं। फिर भी हम मानवता के इतिहास में सबसे आनंदमय या प्रेममय पीढ़ी होने का दावा नहीं कर सकते। लोगों की एक बहुत बड़ी तादाद लगातार चिंता और अवसाद की अवस्था में रहती है। कुछ अपनी असफलता की पीड़ा झेल रहे हैं, लेकिन विडंबना यह है कि कई लोगों के दुःख का कारण उनकी सफलता है। कुछ अपनी सीमाओं की वजह से पीड़ा सह रहे हैं, लेकिन कई अपनी आज़ादी से पीड़ित हैं।
        मेरा पूरा जीवन इंसानों को सशक्त बनाने के लिए समर्पित रहा है, ताकि वे खुद अपने भाग्य के स्वामी बन सकें। मैं उन्हें आनंदमय समावेश की अवस्था में लाना चाहता हूँ, ताकि एक पीढ़ी के तौर पर हममें जो संभावना हैं, वह हमसे कहीं कतराकर न चली जाए। आपकी खुशी, आपका क्लेश, आपका प्रेम, आपकी यंत्रणा, आपका आनंद, सब आपके ही हाथों में हैं। बाहर निकलने का एक रास्ता है। और बाहर निकलने का रास्ता अपने अंदर है। सिर्फ अंदर की ओर मुड़ने पर ही हम वास्तव में प्रेम, प्रकाश और हंसी-खुशी की दुनिया बना सकते हैं। यह किताब उस दुनिया का एक प्रवेश-द्वार हो सकती है। आइए, इसे कर दिखाएँ।
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👆 यह summary है इनर इंजीनियरिंग (Inner Engineering: A Yogi’s Guide to Joy) By Sadhguru Book की। यदि detail में पढ़ना चाहते है तो इस book को यहां से खरीद सकते है 👇 :-

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